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णमोत्थु अ [नमोस्तु] नमन हो । (प्रव. ज्ञे. १०७)
णय पुं [नय] नय, न्याय, नीति, युक्ति, पक्ष । (स. १४२) दोण्ह वि
णयाण भणियं । (स.१४३) वस्तु के अनेक धर्मों में से किसी एक
मुख्य अंश को ग्रहण करना नय है। आचार्य कुन्दकुन्द ने
व्यवहारनय और निश्चयनय इन दो नयों का कथन किया है।
प्रत्येक वस्तु को समझाने के लिए दोनों ही नयों को आधार बनाया
जाता है। इनके सभी ग्रन्थों में यही शैली है। इसके अतिरिक्त
द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक नय द्वारा भी वस्तुतत्त्व को स्पष्ट किया
है। (पंचा. ५-६) व्यवहारनय से ज्ञानी के चारित्र, दर्शन और ज्ञान
है, किन्तु निश्चयनय से ज्ञान, चरित्र और दर्शन नहीं हैं, ज्ञानी
ज्ञायक एवं शुद्ध है। (स. ७) व्यवहारनय को अभूतार्थ एवं निश्चय
नय को भूतार्थ कहा है। ववहारोऽभूयत्थो, भूयत्थो देसिदो दु
सुद्धणओ। (स.११) निश्चयनय को शुद्धनय कहा है। जो नय
आत्मा को बन्धनरहित, पर के स्पर्शरहित और अन्य पदार्थों के
संयोग रहित अवलोकन करता है, वह शुद्धनय है। ( स. १४)
आचाराङ्ग आदि शास्त्र ज्ञान है, जीवादि का श्रद्धान दर्शन
है, छहकाय के जीव चारित्र हैं, यह कथन व्यवहारनय का है और
आत्मा ज्ञान है, आत्मा दर्शन है और आत्मा चारित्र है,
प्रत्याख्यान, संवर और योग है यह शुद्ध नय का कथन है ।
(स.२७६,२७७) -पक्ख पुं [पक्ष ] नयपक्ष, न्यायशास्त्र में प्रसिद्ध
एकपक्ष।(स.१४२,१४३, १४४) जीव में कर्मबंधे हुए हैं या नहीं
यह नयपक्ष है। इस पक्ष से रहित समयसार है। कम्मं
 
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