2023-06-14 00:19:41 by ambuda-bot
This page has not been fully proofread.
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
144
का रूप है। अपभ्रंश में दीर्घ का हस्व हो जाता है।
ठिद/ठिय/द्विद/ट्ठिय वि [स्थित] अवस्थित, स्थित हुआ। (स.२६७,
प्रव. ज्ञे.२, निय.९२,भा. ४०, बो. १२,सू.१४) दंसणणाणम्हि
ठिदो। (स. १८७) जे दु अपरमे ट्ठिदा भावे । (स.१२ )
ठिदि स्त्री [स्थिति] स्थिति, स्थान, कारण, नियम, बन्ध का एक
भेद। (पंचा.७३, स.२३४, निय. ३०, प्रव. १७) -करण न
[करण] स्थितीकरण, सम्यक्त्व के आठ अङ्गों में से एक अङ्ग।
(चा. ७) जो जीव उन्मार्ग में जाते हुए अपने आत्मा को रोककर
समीचीन मार्ग में स्थापित करता है वह स्थितीकरण युक्त होता
है। (स.२३४) -किरियाजुत्त वि [क्रियायुक्त ] ठहरने की क्रिया से
युक्त। (पंचा. ८६) - बंधद्वाण न [बन्धस्थान] स्थितिबन्धस्थान ।
(स.५४, निय.४०) -भोयणमेगभत्त पुं न [ भोजनमेकभक्त]
खड़े-खड़े एक बार भोजन करना, साधुओं का एक मूलगुण । (प्रव.
चा. ८)
ड
डह सक [दह्] जलाना, दग्ध करना। (भा. १३१, ११९ शी. ३४)
डहइ (व.प्र.ए.भा. १३१) डहंति (व.प्र.ब.शी. ३४) डहिऊण
(सं.कृ.भा. ११९)
डहण न [दहन] जलना, भस्म होना । (मो. २६)
डहिअ वि [दहित] जला हुआ, भस्म, भस्मीभूत । ( भा. ४९ )
डाह पुं [दाह] 1. जलन, तपन, गर्मी (भा.९३, १२४) 2. पुं [डाह]
जलन, ईर्ष्या ।
For Private and Personal Use Only
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
144
का रूप है। अपभ्रंश में दीर्घ का हस्व हो जाता है।
ठिद/ठिय/द्विद/ट्ठिय वि [स्थित] अवस्थित, स्थित हुआ। (स.२६७,
प्रव. ज्ञे.२, निय.९२,भा. ४०, बो. १२,सू.१४) दंसणणाणम्हि
ठिदो। (स. १८७) जे दु अपरमे ट्ठिदा भावे । (स.१२ )
ठिदि स्त्री [स्थिति] स्थिति, स्थान, कारण, नियम, बन्ध का एक
भेद। (पंचा.७३, स.२३४, निय. ३०, प्रव. १७) -करण न
[करण] स्थितीकरण, सम्यक्त्व के आठ अङ्गों में से एक अङ्ग।
(चा. ७) जो जीव उन्मार्ग में जाते हुए अपने आत्मा को रोककर
समीचीन मार्ग में स्थापित करता है वह स्थितीकरण युक्त होता
है। (स.२३४) -किरियाजुत्त वि [क्रियायुक्त ] ठहरने की क्रिया से
युक्त। (पंचा. ८६) - बंधद्वाण न [बन्धस्थान] स्थितिबन्धस्थान ।
(स.५४, निय.४०) -भोयणमेगभत्त पुं न [ भोजनमेकभक्त]
खड़े-खड़े एक बार भोजन करना, साधुओं का एक मूलगुण । (प्रव.
चा. ८)
ड
डह सक [दह्] जलाना, दग्ध करना। (भा. १३१, ११९ शी. ३४)
डहइ (व.प्र.ए.भा. १३१) डहंति (व.प्र.ब.शी. ३४) डहिऊण
(सं.कृ.भा. ११९)
डहण न [दहन] जलना, भस्म होना । (मो. २६)
डहिअ वि [दहित] जला हुआ, भस्म, भस्मीभूत । ( भा. ४९ )
डाह पुं [दाह] 1. जलन, तपन, गर्मी (भा.९३, १२४) 2. पुं [डाह]
जलन, ईर्ष्या ।
For Private and Personal Use Only