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प्रव. ज्ञे. ५९, निय. ८९, भा. १२३, मो. २०) झादि
(व.प्र.ए. निय. ८९, पंचा. १४५) झाए (व.प्र.ए. प्रव.ज्ञे. ६७) झाएइ
(व.प्र.ए.निय. १२१, मो. २०) झाएदि (व.प्र.ए. निय. १३३, लिं. ५)
झायइ (व.प्र.ए.निय. १२०, मो. ८४) झायदि ।
(व.प्र.ए.स. १८८, निय.८३) झायंति (व.प्र.ब.मो. १९) झायंतो
(व.कृ.स. १८९, मो.४३) झायव्वो ( वि.कृ.मो. ६३,६४) झाहि
(वि./आ.म.ए.स.४१२) झायहि (वि. / आ.म.ए.भा.१२३)
झाइज्जइ (कर्म. व.प्र.ए. मो. ४) झाइज्जइ परमप्पा । (मो. ७)
झाएवि (अप. सं. कृ. मो. ७७)
झाण पुं न [ ध्यान] ध्यान, चिंतन, विचार । ( पंचा. १५२,
निय.१२९, प्रव. चा. ५६, भा. १२१) आत्मस्वरूप के
अवलम्बनमय भाव से जीव समस्त विकल्पों का निराकरण करने
में समर्थ होता है इसलिये ध्यान ही सब कुछ है।
अप्पसरूवालंवणभावेण दु सव्वभावपरिहारं । सक्कदि काउं जीवो,
तम्हा झाणं हवे सव्वं । (निय. ११९) ध्यान में शुद्धात्मा का ध्यान
श्रेष्ठ है । झाणे झाएइ सुद्धप्पाणं । (मो. २०) जो आत्मध्यान करता
है। उसे नियम से निर्वाण प्राप्त होता है। अप्पाणं जो झायदि,
तस्स दु णियमं हवे णियमा । (निय. १२०) ध्यान के चार भेद हैं-
आर्त्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान । इन चार ध्यानों
में आर्तध्यान और रौद्रध्यान श्रेयस्कर नहीं हैं मात्र धर्मध्यान और
शुक्लध्यान ही रत्नत्रय के कारण हैं। (निय.८९) मोक्षपाहुड ७६
में धर्मध्यान के विषय कहा गया है-भरत क्षेत्र में दुःषम नामक
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प्रव. ज्ञे. ५९, निय. ८९, भा. १२३, मो. २०) झादि
(व.प्र.ए. निय. ८९, पंचा. १४५) झाए (व.प्र.ए. प्रव.ज्ञे. ६७) झाएइ
(व.प्र.ए.निय. १२१, मो. २०) झाएदि (व.प्र.ए. निय. १३३, लिं. ५)
झायइ (व.प्र.ए.निय. १२०, मो. ८४) झायदि ।
(व.प्र.ए.स. १८८, निय.८३) झायंति (व.प्र.ब.मो. १९) झायंतो
(व.कृ.स. १८९, मो.४३) झायव्वो ( वि.कृ.मो. ६३,६४) झाहि
(वि./आ.म.ए.स.४१२) झायहि (वि. / आ.म.ए.भा.१२३)
झाइज्जइ (कर्म. व.प्र.ए. मो. ४) झाइज्जइ परमप्पा । (मो. ७)
झाएवि (अप. सं. कृ. मो. ७७)
झाण पुं न [ ध्यान] ध्यान, चिंतन, विचार । ( पंचा. १५२,
निय.१२९, प्रव. चा. ५६, भा. १२१) आत्मस्वरूप के
अवलम्बनमय भाव से जीव समस्त विकल्पों का निराकरण करने
में समर्थ होता है इसलिये ध्यान ही सब कुछ है।
अप्पसरूवालंवणभावेण दु सव्वभावपरिहारं । सक्कदि काउं जीवो,
तम्हा झाणं हवे सव्वं । (निय. ११९) ध्यान में शुद्धात्मा का ध्यान
श्रेष्ठ है । झाणे झाएइ सुद्धप्पाणं । (मो. २०) जो आत्मध्यान करता
है। उसे नियम से निर्वाण प्राप्त होता है। अप्पाणं जो झायदि,
तस्स दु णियमं हवे णियमा । (निय. १२०) ध्यान के चार भेद हैं-
आर्त्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान । इन चार ध्यानों
में आर्तध्यान और रौद्रध्यान श्रेयस्कर नहीं हैं मात्र धर्मध्यान और
शुक्लध्यान ही रत्नत्रय के कारण हैं। (निय.८९) मोक्षपाहुड ७६
में धर्मध्यान के विषय कहा गया है-भरत क्षेत्र में दुःषम नामक
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