This page has not been fully proofread.

.
 
www.kobatirth.org.
 
135
 
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
 
प्रकार का है। ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग के भेद से दो प्रकार
का है। कर्मचेतना, कर्मफल चेतना और ज्ञान चेतना से युक्त या
उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्यरूप होने से तीन प्रकार का है। चार गतियों
में परिभ्रमण करने के कारण चार प्रकार का है। चारों दिशाओं
एवं ऊपर व नीचे गमन करने वाला होने से छह प्रकार का है।
सप्तभङ्ग के कारण सात प्रकार का है। आठकर्मों के कारण आठ
प्रकार का है । नव-पदार्थों रूप प्रवृत्ति होने के कारण नव प्रकार
का है। पृथिवी, जल,तेज, वायु, साधारण वनस्पति, प्रत्येक
वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय इन दश
भेदों से युक्त होने से दश प्रकार का है। (पंचा. ७१, ७२) जीव का
विवेचन मुक्त-
संसारी, त्रस- स्थावर, गति, भव्य एवं अभव्य की
दृष्टि से भी किया गया है। (पंचा. १०९, १२४) जीवस्स चेदणदा ।
(पंचा. १२४) जीव का गुण चेतनता है। -काय पुं [काय] जीव
समूह, जीवराशि । ( प्रव. ४६ ) - गुण पुं न [ गुण] जीवगुण ।
जीवगुणा चेदणा य उवओगो। (पंचा. १६) चेतना और उपयोग के
अतिरिक्त औपशमिकादि भाव भी जीव के गुण हैं। (पंचा.५६)
- घाद पुं [घात] जीवघात, जीवों का विनाश । ( लिं. ९)
किसिकम्मवणिज्जजीवघादं । (लिं. ६) -ट्ठाण/ठाण न [स्थान ]
जीवस्थान। (स.५५, निय. ७८, बो. ३०) पज्जत्तीपाणजीवठाणेहिं ।
(बो. ३०) -णिकाय पुं [निकाय ] जीव समूह । एदे जीवणिकाया।
(पंचा.११२,१२०, प्रव. ज्ञे. ९० ) -णिबद्ध वि [निबद्ध] जीव के
साथ बंधे हुए। जीवणिबद्धा एए। (स.७४) -त्त वि [त्व] जीवत्व,
 
For Private and Personal Use Only