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१००
अमरचन्द्रयतिकृता-
[ प्रतानः ३-
पीत दम्भ अङ्गमर्दक ऊर्ध्वन्दम अतिजव जवन आराधना धन्योसि वक पदाति आवे
शक पाद्य सम्मता ग्रामेय कुलीन रामा ललना अङ्गण उपमानेन विलास चर्या वल्लभा
दम्पती भोगिन्यौ स्वतन्त्रा मातुलानी श्यामा कात्यायनी वारवधू आर्त्तप संवेशन
दोहद आसन्नसत्वा कलल दास सोदर अवरज कनीयान् मातुला नमान्दा ननन्दा
नन्दिनी हाली परीहास देवन उपमानी वीरमाता श्वशुर पितर त्राता बान्धव आयतन
खालक कुणप कबन्ध अवयव राशिक लाप भ्रमरक अलका भ्रमरा लक संयता सीमन्त
केशपाश काकपक्ष वेष्टन भावनीय अवलोकन निशामन द्योतन अयाङ्ग विकार नासिका
जीभा रसना कन्धरा अनामिका कामाङ्कुश तिलक रोमलता आरोह जघन वराङ्ग
जङ्गल पलल परिकर्म अङ्गराग संवर्त्तन कोलक नायिका तरल ललामक लज्जा कर्णपूर
कर्णिकाहारी अङ्गद वलय रसना सारसन कार्पास उच्चल जलार्द्र ललिम तलिमा यावक
कज्जल दीप पार्थिव त्रिशङ्कु ] ।
-
एकार्थत्वेऽनुलोमप्रतिलोमशब्दा यथा -[ कलङ्क पतदातप वासवा कौशिकौ विभवि
कालिकः तावता कारिका कोरको नयन अपलाप वर्त्तन नन्दन साध्वसा वरभैरव कलपुलक
कटक कण्टक नध्यान जाड्यजा नपुनः दैत्यदै: महेम आकर्णिकआ यासुया कोलको
योत्थ्यो रत्यार विभावि यातया नाद्येन जाया जा कचसूचक नान्दीनाम् हासीहा हाववहा
सूरिसू दक्षद वाचवा लोहलो स्वेच्छास्वे तानेनेता गोप्यगो भीरभी पापा शय्याश बत
कैतव दम्भद साभ्यासा नार्दना कचकनवेन नव्येन लगुड कांक्षकां कामुका अर्हणाईअ
वलीव केशके वरयारव उपतापड कोपतापको जायुजाकच्छक सरस निधनि विववि
स्यदस्य सहास जनज जात्यजा गोत्रगो योन्वयो जननज कान्ताकाम् स्मितास्मि भावभा
हावा हेलाहे गौरीगौ मध्यम तरुणीरुत जनीज सूनुसू याजाया वनीजनीव दम्पतीपद
योग्ययोः साध्वीसा यातिया द्वंद्वं दोहदो कललक योनयोः यामेया श्रद्धाश्र दास्यदा
रदसोदर बान्धवा गात्रगा देहदे भारमा हस्तह केशाङ्के भालेभा दंष्ट्रादं दन्तदं दंशदं नद्र-
खदन तालुता राणिपा पललप लङ्काकङ्कालं अङ्गरागअ कण्ठिक काञ्चिकां कंचुकं तल्पतः
जनुजः भूरिभूः नुततनु कनक ] । एवमन्येऽपि ज्ञेयाः ॥
A
आकारः खङ्गाद्याकृतिस्तचित्रम् । यथा -
श्लेषार्थोप सङ्गृहीतैरन्त्यादिसदृशाक्षरैः ।
प्रतिलोमानुलोमस्थैः शब्दैश्चित्रसमुद्भवः ॥ १८५ ॥
श्लेषव्युत्पादनस्तबके सहशव्यञ्जनान्तरसहग्व्यञ्जनादिशब्दैः प्रभाभास्वत्प्रमुखै.
रत्र चित्रस्तबके संगृहीतैरनुलोमशब्दैश्च सर्वाण्याकारचित्राणि संभवन्ति ।
सर्वेष्वाकार चित्रेषु वर्णावृत्तिस्तु सन्धिषु ।
लाघुच्चारे लध्वलघुप्रयत्ने वबयोरपि ॥ १८६ ॥
संयुक्तयोः सजातीयवर्णयोर्णनयोस्तथा ।
स्वरवर्जितमनयोर्विसर्गाभावभावयोः ॥ १८७ ॥ .
अमरचन्द्रयतिकृता-
[ प्रतानः ३-
पीत दम्भ अङ्गमर्दक ऊर्ध्वन्दम अतिजव जवन आराधना धन्योसि वक पदाति आवे
शक पाद्य सम्मता ग्रामेय कुलीन रामा ललना अङ्गण उपमानेन विलास चर्या वल्लभा
दम्पती भोगिन्यौ स्वतन्त्रा मातुलानी श्यामा कात्यायनी वारवधू आर्त्तप संवेशन
दोहद आसन्नसत्वा कलल दास सोदर अवरज कनीयान् मातुला नमान्दा ननन्दा
नन्दिनी हाली परीहास देवन उपमानी वीरमाता श्वशुर पितर त्राता बान्धव आयतन
खालक कुणप कबन्ध अवयव राशिक लाप भ्रमरक अलका भ्रमरा लक संयता सीमन्त
केशपाश काकपक्ष वेष्टन भावनीय अवलोकन निशामन द्योतन अयाङ्ग विकार नासिका
जीभा रसना कन्धरा अनामिका कामाङ्कुश तिलक रोमलता आरोह जघन वराङ्ग
जङ्गल पलल परिकर्म अङ्गराग संवर्त्तन कोलक नायिका तरल ललामक लज्जा कर्णपूर
कर्णिकाहारी अङ्गद वलय रसना सारसन कार्पास उच्चल जलार्द्र ललिम तलिमा यावक
कज्जल दीप पार्थिव त्रिशङ्कु ] ।
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एकार्थत्वेऽनुलोमप्रतिलोमशब्दा यथा -[ कलङ्क पतदातप वासवा कौशिकौ विभवि
कालिकः तावता कारिका कोरको नयन अपलाप वर्त्तन नन्दन साध्वसा वरभैरव कलपुलक
कटक कण्टक नध्यान जाड्यजा नपुनः दैत्यदै: महेम आकर्णिकआ यासुया कोलको
योत्थ्यो रत्यार विभावि यातया नाद्येन जाया जा कचसूचक नान्दीनाम् हासीहा हाववहा
सूरिसू दक्षद वाचवा लोहलो स्वेच्छास्वे तानेनेता गोप्यगो भीरभी पापा शय्याश बत
कैतव दम्भद साभ्यासा नार्दना कचकनवेन नव्येन लगुड कांक्षकां कामुका अर्हणाईअ
वलीव केशके वरयारव उपतापड कोपतापको जायुजाकच्छक सरस निधनि विववि
स्यदस्य सहास जनज जात्यजा गोत्रगो योन्वयो जननज कान्ताकाम् स्मितास्मि भावभा
हावा हेलाहे गौरीगौ मध्यम तरुणीरुत जनीज सूनुसू याजाया वनीजनीव दम्पतीपद
योग्ययोः साध्वीसा यातिया द्वंद्वं दोहदो कललक योनयोः यामेया श्रद्धाश्र दास्यदा
रदसोदर बान्धवा गात्रगा देहदे भारमा हस्तह केशाङ्के भालेभा दंष्ट्रादं दन्तदं दंशदं नद्र-
खदन तालुता राणिपा पललप लङ्काकङ्कालं अङ्गरागअ कण्ठिक काञ्चिकां कंचुकं तल्पतः
जनुजः भूरिभूः नुततनु कनक ] । एवमन्येऽपि ज्ञेयाः ॥
A
आकारः खङ्गाद्याकृतिस्तचित्रम् । यथा -
श्लेषार्थोप सङ्गृहीतैरन्त्यादिसदृशाक्षरैः ।
प्रतिलोमानुलोमस्थैः शब्दैश्चित्रसमुद्भवः ॥ १८५ ॥
श्लेषव्युत्पादनस्तबके सहशव्यञ्जनान्तरसहग्व्यञ्जनादिशब्दैः प्रभाभास्वत्प्रमुखै.
रत्र चित्रस्तबके संगृहीतैरनुलोमशब्दैश्च सर्वाण्याकारचित्राणि संभवन्ति ।
सर्वेष्वाकार चित्रेषु वर्णावृत्तिस्तु सन्धिषु ।
लाघुच्चारे लध्वलघुप्रयत्ने वबयोरपि ॥ १८६ ॥
संयुक्तयोः सजातीयवर्णयोर्णनयोस्तथा ।
स्वरवर्जितमनयोर्विसर्गाभावभावयोः ॥ १८७ ॥ .