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गोविन्द-दामोदर-स्तोत्र
 
( १५ )
 
जिनका मुखारविन्द बड़ा ही मनोहर है, जो अपने विम्बके
समान अरुण अधरोंपर रखकर वंशीकी मधुर ध्वनि कर रहे हैं तथा जो
कदम्बके तले गौ, गोप और गोपियोंके मध्य में विराजमान हैं उन
भगवान्का 'हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव !' इस प्रकार कहते
हुए सदा स्मरण करना चाहिये ।
 
( १६ )
ब्रजाङ्गनाएँ ब्राह्ममुहूर्तमें
 
उठकर और उन यशुमतिनन्दनकी
करके दही मथते-मथते 'गोविन्द !
 
उच्च स्वरसे गाया करती हैं।
( १७ )
 
[ दघि मथकर माताने माखनका लौंदा रख दिया था ।
माखनभोगी कृष्णकी दृष्टि पड़ गयी, झट उसे धीरेसे उठा लाये ] कुछ
खाया कुछ बाँट दिया। जब ढूँढ़ते-ढूँढ़ते न मिला तो यशोदामैयाने
आपपर सन्देह करते हुए पूछा- 'हे मुरारे ! हे गोविन्द ! हे दामोदर !
हे माधव ! ठीक-ठीक बता माखनका लौंदा क्या हुआ ?'
 
बालक्रीड़ाओंकी बार्तोको याद
 
दामोदर ! माघव' इन पदोंको
 
( १८ )
 
जिसके हृदय में प्रेमकी बाढ़ आ रही है ऐसी माता यशोदा
घरको लीपकर दही मथने लगी । तब और सब गोपाङ्गनाएँ तथा
सखियाँ मिलकर 'गोविन्द ! दामोदर !
करने लगीं ।
 
माधव !' इस पदका गान
 
( १९ )
 
किसी दिन प्रातःकाल ज्यों ही माता यशोदा दहीभरे भाण्डमें
मथानीको छोड़कर उठी त्यों ही उसकी दृष्टि शय्यापर बैठे हुए
मनमोहन मुकुन्दपर पड़ी। सरकारको देखते ही वह प्रेमसे पगली हो
गयी और 'मेरा गोविन्द ! मेरा दामोदर ! मेरा माधव !' ऐसा
कहकर तरह-तरहसे गाने लगी ।
 
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