This page has not been fully proofread.

शिरसा याचतस्तस्य
 
स स्वराड् भवति
 
सकृदुच्चरितं येन
 
सकृदुच्चारोभवति
 
सन्दर्शनादकस्माञ्च
 
सर्वलोकशरण्याय
 
सर्वस्य शरणं सुहृत्
 
सर्वातिशायि षाड्मण्यं
 
130
 
ज्ञानी तु परमैकान्ती
 
प्रियेण सेनापतिना
 
स यदि पितृलोककामो
 
रा.यु.२४-२१
छां.उ.७-२५-२
 
वि.ध. ७०-८४
 
द्वयोपनिषत्
 
पौ.सं. १-३१
 
रा.यु.१७-१५
 
श्वे.उ.३-१७
 
वि.सं.
 
३. वैकुण्ठगद्यभाष्योद्धृतप्रमाणानां अकारादि सूचनी
 
गद्यत्रयभाष्यम्
 
गी.सं. २९
 
स्तो.र.४२
 
छां.उ.८-२-१
 
93
 
94
 
101
 
101
 
103
 
97
 
97
 
93
 
106
 
108
 
109