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अनुबन्धः
 
नाभुक्तं क्षीयते कर्म
 
नारायण परं ब्रह्म
 
नित्यसत्त्वस्थः
 
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति
 
परं ब्रह्म परं धाम
 
परः पराणां सकला
परमपुरुषभोगोपकरणस्य
 
पशवः पाशिताः पूर्वं
 
पशुर्मनुष्यः पक्षी वा
 
पुण्डरीकं परं धाम
 
पुण्यापुण्यरूपं कर्म
 
प्रार्थनामात्रसन्तुष्टो
 
बन्धाय विषयासङ्गि
 
बृहति बृंहयति
ब्रह्म परिबृढं सर्वतः
 
भगवत्स्वरूप.……...
 
भव शरणमितीरयन्ति
 
मनो दुर्निग्रहं चलम्
 
मम माया दुरत्यया
यथा रत्नानि जलधेः
 
यत्र
 
यद्ब्रह्मकल्प
 
रक्षिष्यतीति विश्वासात्
 
रसो वै सः
 
लक्ष्म्या सह हृषीकेशः
 
वधार्हमपि काकुत्स्थः
 
विभीषणो वा सुग्रीव !
 
व्यतिरेकस्तद्भावभावित्वात्
 
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ब्र.वै.२६-७०
 
महाना.उ.११-२५
 
भ.गी. २-४५
 
भ.गी. २-४०
 
भ.गी. १०-१२
 
वि.पु.६-५-८५
 
श्रीभा. ४-४-२०
 
श्रीवित. १-२-१०
 
शां. स्मृ.१-१५
म.भा.शां.६९-६
 
यो. भा. २-१२
 
अहि.सं.
 
वि.पु.६-७-२८
 
अ.शि. २
 
निरुक्तम्.१-३
 
श.ग.
 
वि.पु.६-७-३३
 
भ.गी.६-३५
 
भ.गी.७-१४
 
वाम. पु. ७४४०
 
वै.स्त.६२
 
ल.तं.१७-७७
 
तै. उ. आन.७
 
ल.तं.२८-१४
 
रा.सुं. ३८-३४
 
रा. यु. १८-३५
 
ब्र.सू. ३-३-५४
 
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