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२. श्रीरङ्गगद्यभाष्योद्धृतप्रमाणानां अकारादि सूचनी
 
अचेतना परार्था च
 
अनिच्छन्नप्येवम्
 
अमानित्वमदम्भित्वम्
 
अर्च्यः सर्वसहिष्णुः
 
अविद्यास्मितारागद्वेष
 
अविभागेन दृष्टत्वात्
 
अहमप्यस्य शीलादि
 
इच्छात एव तव
 
उपादत्ते सत्तास्थितिनियमनाद्यैः
 
एतन्निष्ठस्य मर्त्यस्य
 
कुहेतुश्च कुभावश्च
 
कृपामयमपाङ्गं ते
 
क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः
 
गोप्तृत्ववरणं नाम
 
चञ्चलं हि मनः कृष्ण !
 
जायमानं हि पुरुषम्
 
तदेकोपायता याञ्चा
 
तामर्चयेत् तां प्रणमेत्
 
तेजोबलैश्वर्य......
 
त्वत्पादकमलादन्यत्
 
दया सर्वेषु भूतेषु
 
दारुण्यग्निर्यथा तैलं
 
दुष्टेन्द्रियवशाच्चित्तं
 
देवानां दानवानां च
 
न मे पार्थास्ति कर्तव्यम्
 
परम.सं. २
 
स्तो. र. ५९
 
भ.गी.१३-७
 
श्रीरं. स्त. २-७४
 
यो.सू.२-३
 
ब्र.सू. ४-४-४
 
रा.कि.४-१२
 
वै.स्त.३६
 
श्रीरं.स्त.२-५७ ।
 
भा.स्मृ.
पौ.सं. १ ३२
 
वि.ध.
 
यो.सू.१-२४
 
ल.तं.१७-७८
 
भ.गी.६-३४
 
म.भा.शां.३५८-७३
 
भरतमुनिवाक्यम्
वि.ध. १०३-३०
 
वि.पु.६-५-८५
 
जि.स्तो. १-१०
 
वि.पु.३-८-५३
 
वि.पु.२-७-२८
 
सा.सं. ७- १२०
 
जि.स्तो.१-२
 
भ.गी.३-२२
 
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