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स एकधा भवति
 
स च सर्वगुणोपेतः
 
सन साधुना कर्मणा
 
स सर्वानथिनो दृष्ट्वा
 
स स्वराट्
 
स एवं विद्वानस्माच्छरीरभेदात्
 
संत्यक्ता ये त्वयाऽमले !
संसारन्यूनताभीताः
 
सकृदेव हि शास्त्रार्थः
 
सकृदेव प्रपन्नाय
 
सत्यं शतेन विघ्नानाम्
 
सत्यवादी च राघवः
 
सत्वादिगुणसमुदाय एव
 
सदा तवैवोचितया
 
सन्तमेनम्
सन्दर्शनादकस्माच
 
समस्तशक्तिरूपाणि
 
समस्तहेयरहितं
 
समस्ताश्शक्तयश्चैताः
 
समेत्य प्रतिनन्द्य च
 
समोऽहं सर्वभूतेषु
 
सम्पद्याविर्भावः
 
सर्वं खल्विदं ब्रह्म
 
सर्वं परवशं दुःखम्
 
सर्वकामप्रदां रम्यां
 
सर्वगन्धः
 
सर्वदर्शी स्वाधीनोऽनादिः
 
सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि
 
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छां.उ.७-२६-२
 
रा.बाल.१-१७
 
बृ.उ.६-४-२२
 
रा.अयो.१६-२७
 
छां.उ.७-२५-२
 
ऐ. उ. ४-६
 
वि.पु.१-९-१२९
 
वि.ध.२-२५
 
ल.तं.१७-९०
 
रा.यु.१८- ३३
 
वि.ध. ७०-८४
 
रा. अयो. २-३३
 
सां. पक्षः.
स्तो. र. ३८
 
तै. उ. आन. ६-१
 
पौ.सं.१-३१
 
वि.पु.६-७-७१
 
वि.पु.१-२२-५३
 
वि.पु.६-७-७०
 
रा.अयो.१६-२७
 
भ.गी.९-२९
 
ब्र.सू.४-४-१
 
छां.उ.३-१४-१
 
म.स्मृ.४-१६०
 
छां.उ.३-४-२१
 
रहस्याम्नायम्
 
भ.गी.१८-६६
 
गद्यञयभाष्यम्
 
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