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अनुबन्धः
 
यदण्डम्
 
यदि रामस्समुद्रान्ताम्
 
यदि मे न दयिष्यसे
 
यद्धितं मम देवेश!
 
यद्येन कामकामेन
 
यद्ब्रह्मकल्प
यन्मुहूर्तम्
 
यया धर्ममधर्मञ्च
 
यस्यास्ते महिमानमात्मन
 
या प्रीतिः
 
या प्रीतिरविवेकानाम्
 
याभिस्त्वं स्तनबाहुदृष्टिभिरिव
 
यामालम्ब्य सुखेनेमं
 
यावन्न चरणौ भ्रातुः
 
ये तु मुक्ता भवन्तीह
 
ये प्रपन्ना महात्मानः
यो वेत्ति युगपत्सर्वं
यो ब्रह्माणम्
यो मामेवमसम्मूढः
 
यो लोकत्रयमाविश्य
 
यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वम्
 
योऽन्यथासन्तमात्मानम्
 
रम्याणि कामचाराणि
 
रामस्य सव्यपार्श्वे तु
 
रामस्य व्यवसायज्ञः
 
रिपूणामपि वत्सलः
 
रूपं विशिष्टं दिवि संस्थितञ्च
 
लोकस्तु भुवने जने
 
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स्तो.र.१७
 
रा.सुं.१६-१३
 
स्तो.र.५०
जि.स्तो.१-१८
 
अहि.सं.३७-२५
 
वै. स्त.६२
 
ग.पु.पू.खं.२२२-२२
 
भ.गी.१८-३१
 
च. श्लो. २
 
वि.पु.१-१९-२०
 
वि.पु.१-२०-१९
 
श्रीगु.र.को.२६
 
सा.सं. १२-८४
 
रा. अयो.९८-८
 
म.भा.शां.३३५-१४
 
पाञ्चरात्रम्
न्या.त. ( नाथमुनिः)
 
श्वे.उ.६-१८
 
भ.गी.१५-१९
 
भ.गी.१५-१७
 
श्वे.उ.६-१८
 
म.भा. उद्यो.४२-३५
 
म.भा.शां.१९६-४
 
रा.उत्त.१०९-६
 
रा.सुं.१६-४
 
रा.यु.५० - ५६
म.भा.मौ.५-३४
 
अ.को. ३
 
51
 
43
 
56
 
24
 
19
 
64
 
80
 
25
 
9
 
18
 
72
 
22
 
4
 
17
 
46
 
85
 
33
 
18
 
52
 
33
 
48
 
67
 
47
 
12
 
72
 
14,53
 
31
 
54