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अनुबन्धः
 
प्रपन्नार्तिहरं विष्णुम्
प्रलये न व्यथन्ति च
 
प्रशकनबल.……...
 
प्रशासने गार्गि !
 
प्रसादयस्व त्वं चैनम्
प्रहर्षयिष्यामि
 
प्राणेभ्योऽपि गरीयसीम्
 
प्राप्यते परमं धाम
 
प्रायश्चित्तप्रसङ्गे तु
 
प्रारब्धमात्रं भुक्त्वात्र
 
प्रारब्धमेव भोक्तव्यम्
 
प्रार्थनामतिश्शरणागतिः
 
प्रियवाग्दानशीलो हि
 
प्रियाणि तस्याः पुष्पाणि
 
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थम्
 
फणिपतिश्शय्यासनं वाहनम्
 
फलमत उपपत्तेः
 
बलं वीर्यं तथा तेजः
बहूनां जन्मनामन्ते
 
बिभेद च पुनस्सालान्
 
बिम्बाकृत्यात्मना बिम्बे
 
ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति
 
ब्रह्मेशादिसुरव्रजः
 
भक्तया परमया वाऽपि
 
भक्तया त्वनन्यया शक्यः
 
भगवद्वासुदेवस्य
भत्सितामपि याचध्वं
 
भव शरणमितीरयन्ति
 
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वि.पु.१-९-३७
 
भ.गी.१४-२
 
श्रीगु.र.को. ३२
 
बृ.उ.५-८-८
 
रा.सुं. २१ - २०
 
स्तो.र.४६
 
अहि.सं.३७-२६
 
ल.तं.१७ - १०२
 
पाञ्चरात्रम्
 
पाञ्चरात्रम्
 
अहि.सं.३७.३१
 
.को. २-२११
 
हला.
 
धनदीयम्
 
भ.गी.७-१७
 
च.श्लो. २
 
ब्र.सू.३-५-३७
 
भगवच्छास्त्रम्
 
भ.गी.७-१९
 
रा.बा.१-६७
 
सा.सं. ६-२२
 
मुं.उ.३-२-९
च श्लो. १
 
भ.गी. ११-५४
 
भगवच्छास्रम्
 
रा.सु. २७-४५
 
वि.पु.३-७-३३
 
55
 
23
 
9
 
78
 
14
 
21
 
6
 
19
 
4
 
81
 
81
 
25
 
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30
 
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8
 
19
 
72
 
11
 
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