This page has been fully proofread once and needs a second look.

( ३१ )
 

 
ततश्चानुभूयमानभावविशेषः
 
निरतिशयप्रीत्या
 
अन्यत्
 
अन्यत्
किञ्चित्कर्तुं द्रष्टुं स्मर्तुमशक्तः पुनरपि शेषभावमेव याचमानः भग-

वन्तमेव अविच्छिन्नस्त्रोतोरूपेरगाणावलोकनेनावलोकयन्नासीत । (६)
 

 
ततो भगवता स्वयमेवात्मसञ्जीवनेनावलोक्य सस्मितमाहूय

समस्तक्लेशापहं निरतिशयसुखावहम् आत्मीयं श्रीमतृत्पादार-
बि

वि
न्दयुगलं शिरसि कृतं ध्यात्वा प्रमृतसागरान्तर्निमग्नसर्वावयवः

सुखमासीत ।
 
(७)
 
इति श्रीभगवद्रामानुजविरचिते गद्यत्रये, तृतीयं

श्रीवैकुण्ठगद्यं सम्पूर्णम् ।
 
(७)
 
T
 

 
 
इसके पश्चात् विशेषभाव के साथ भगवान् का अनुसन्धान

करते हुए निरतिशय प्रेम के कारण अन्य कुछ भी करने देखने

या स्मरण करने में असमर्थता का अनुभव करे और शेषभाव

को ही याचना करते हुए अविच्छिन्न प्रवाहरूपिणी दृष्टि के

द्वारा भगवान् का ही दर्शन करता रहे ॥६॥
 

 
इसके पश्चात् भगवान् स्वयं ही आत्मा को जीवन-

दान करने वाली दृष्टि से देखकर मन्द मुस्कराहट के साथ

बुलाकर समस्त क्लेशों को दूर करने वाले और निरतिशय

सुख की प्राप्ति कराने वाले अपने युगलचरणारविन्दों को मेरे

मस्तक पर रख रहे हैं ऐसा ध्यान कर आनन्दामृतमहासागर

में सम्पूर्ण रूप से निमग्न होकर सुख का अनुभव करे ॥७॥