This page has not been fully proofread.

( ३२ )
 
प्रत्यग्रोन्मीलितसरसिज सदृशनयनयुगलं स्वच्छनीलजीमूत-
सङ्काशं प्रत्युज्ज्वलपीतवाससं, स्वया प्रभया प्रतिनिर्मलया
अतिशीतलया ( प्रतिकोमलया ) स्वच्छया मारिणक्याभया कृत्स्नं
जगद्भासयन्तम् । १२
 
We
 

 
अचिन्त्य दिव्याद्भुत नित्ययौवन स्वभावलावण्यमयामृत-
सागरम् अतिसौकुमार्यादीषत्प्रस्विन्नवदालक्ष्यमारणललाटफलक-
दिव्यालकावलीविराजितम्, १३
 
प्रबुद्धमुग्धाम्बुजचारुलोचनं, सविभ्रमभ्रु लत मुज्ज्वलाधरम् ।
शुचिस्मितं, कोमलगण्डमुन्नसं...
 
11
 
उदग्रपीनांस विलम्बि कुण्डलालकावलीबन्धु रकम्बुकन्धरम् ।
 
-
 
-
 
भगवान् के दोनों नेत्र तुरन्त खिले हुए कमलों के समान
हैं । उनका दिव्यमंगल विग्रह निर्मल श्याम मेघ के समान
है । वे अत्यन्त उज्ज्वल पीताम्बर धारण किये हैं । वे त
निर्मल, अत्यन्त शीतल, [ अत्यन्त कोमल ] स्वच्छ मारिणक्य
की सी आभा से सम्पूर्ण जगत को प्रकाशित करते हैं । १२
 
वे अचिन्त्य, दिव्य, अद्भुत, नित्य-यौवन, स्वभाव एवं
लावण्यमय अमृत के समुद्र हैं । अत्यन्त सुकुमारता के कारण
उनका ललाट कुछ पसीने की बूंदों से युक्त दिखायी देता है
वहाँ तक
अलकावली शोभाय-
मान है । १३
 
फैली हुई उनकी दिव्य
 
भगवान् के नेत्र विकसित कोमल कमल के समान
सुन्दर हैं, उनकी भ्रूलता विभ्रम विलास से युक्त है, उनके