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॥ श्रीः ॥
 
॥ श्रीमते रामानुजाय नमः ॥
 
श्रीभगवद्रामानुज-विरचित- गद्यत्रये, तृतीयं
॥ श्रीवैकुण्ठगद्यम् ॥
 
यामुनार्यसुधाम्भोधिमवगाह्य
 
यथामति ।
 
आदाय भक्तियोगाख्यं रत्नं सन्दर्शयाम्यहम् ॥ (१)
स्वाधीन त्रिविधचेतनाचेतन स्वरूप स्थितिप्रवृत्तिभेदं, क्लेश-
कर्माद्यशेषदोषासंस्पृष्टम्, १
 
स्वाभाविकानवधिकातिशय ज्ञान बलैश्वर्यवोर्यशक्तितेज:प्रभू-
त्यसंख्येयकल्यारगगुरगगरगौघमहार्णवम्, २
 
श्रीयामुनाचार्यरूपी सुधासागर में अवगाहन कर मैं अपनी
बुद्धि के अनुसार भक्तियोग अर्थात् भगवदनुसन्धान रूप रत्न
लाकर दिखा रहा हूँ ॥ १॥
 
जो बद्ध, मुक्त और नित्य तीन प्रकार के चेतन तथा
अचेतन के स्वरूप, स्थित एवं प्रवृत्ति को अपने अधीन रखते
हैं, क्लेश, कर्म आदि सम्पूर्ण दोष जिनका स्पर्श नहीं
कर पाते । १
 
जो स्वाभाविक, असीम, अतिशय, ज्ञान, बल, ऐश्वर्य, वीर्य,
शक्ति, तेज आदि असंख्य कल्याणगुण समूहरूपो जलप्रवाह के
महासागर हैं । २