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( २३ )
 
स्वानुभवप्रीत्योपनीतंकान्तिकात्यन्तिक
 
- नित्यकं ङ्कयँकर तिरूप-
नित्यदास्यं दास्यतीति विश्वासपूर्वकं भगवन्तं नित्यकिङ्करतां
 
प्रार्थये ।
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(३)
 
1
 
तवानुभूतिसंभूतत्रीतिकारितदासताम्
 
देहि मे कृपया नाथ ! न जाने गतिमन्यथा "
 
(४)
 
सर्वावस्थोचिताशेषशेषतै कर तिस्तव
 
भवेयं पुण्डरीकाक्ष ! त्वमेवैवं कुरुष्व माम् ॥
 
(५)
 
एवंभूततत्त्वयाथात्म्यावबोधतदिच्छारहितस्यापि एतदु-
द्वारा उत्पादित ऐकान्तिक प्रात्यन्तिक नित्य कैंकर्य बिषयक
एकमात्र
 
अनुराग स्वरूप नित्य दास्य
 
प्रदान करेंगे ही इस
 
विश्वास के साथ भगवान्ना
 
करता हूँ ॥३॥
 
नाथ ! आपके स्वरूप के अनुभव से प्रकट हुई प्रीति द्वारा
उत्पादित दास्यभाव मुझे कृपया प्रदान करें। इसके अतिरिक्त
मेरी अन्य गति नहीं है ॥४॥
 
आप
 
मुझे ऐसा
 
पुण्डरीकाक्ष ! मैं सभी अवस्थाओं में उचित सम्पूर्ण
शेषभावविषयक अनन्य प्रीति से युक्त होऊँ ।
ही बनाइये ॥५॥
 
इस प्रकार तत्त्वसाक्षात्कार एवं इसकी जिज्ञासा से रहित
मेरे मन को इस शरणागति के उच्चारण मात्र से ही आप