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( २२ )
 
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तिलतैलवद्दारु वह्निवद्दुर्विवेच त्रिगुरणण - क्षणक्षरणस्वभावा-

चेतनप्रकृतिव्याप्तिरूपदुरत्यय भगवन्मायातिरोहितस्वप्रकाशः, ३

अनाद्य विद्यासञ्चितानन्ताशक्यवित्र स्रंसनकर्मपाशप्रग्रथितः, ४

अनागतानन्तकालसमीक्षयाऽदृष्ट सन्तारोपायः, निखिलजन्तु-

जातशरण्य ! श्रीमन् ! नारायण ! तव चरणारविन्दयुगलं

शरणमहं प्रपद्ये ।
 
एवमवस्थितस्याप्यथित्वमात्रेरण
 
(२)
 

 
एवमवस्थितस्याप्यर्थित्वमात्रेण
परमकारुरिएणिको भगवान्
 

 
 
जिस प्रकार तिलमें तेल और काष्ठ में अग्नि स्थित है
संजी
 

उसी प्रकार प्रात्मा प्रकृति में स्थित है ।
 
इस प्रकृति का
 

विश्लेषण करना अत्यन्त कठिन है। इसमें
 
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सत्व, रज और
तम तीनों गुणों की स्थिति है।
 
सत्व, रज और
 
प्रतिक्षण क्षरण का होते
 

रहना इसका स्वभाव है । यह अचेतन है ।
यह भगवान् की
 
प्रतिक्षरण
 
yamay
 
रहना इसका स्वभाव है । यह अचेतन है ।
Jaswamyami
 
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दुरत्यया ( दुर्लंघ्य )
 
माया है । इसी के सम्बन्ध से मेरा
स्वभाविक
 
माया है । इसी के सम्बन्ध से मेरा
703 S
ज्ञान का प्रकाश तिरोहित हो गया है । ३
 

 
मैं अनादि अविद्या द्वारा संचित अनन्त एवं अटूट कर्मपाश

से जकड़ा हुआ हूँ । ४
 

 
भावी अनन्तकाल की प्रतीक्षा करने पर भी मुझे अपने

उद्धार का कोई उपाय नहीं दिखाई देता ।
 

 
इसलिये जीवमात्र को शरण देने वाले श्रीमन्नारायण !

मैं आपके युगल चरणकमलों की शरण ग्रहण करता हूँ ॥ २ ॥

ऐसी दशा स्थित होने पर​ भी प्रार्थना करने मात्र से

परम कारुणिक भगवान् अपने अनुभव से प्रकट हुई प्रीति के