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स्वात्मनित्यनियाम्यनित्यदास्यैकरसात्म-स्वभावानुसन्धान-

पूर्वक भगवदनवधिकातिशयस्वाम्यद्य खिल-गुण​गरगाणानुभवजनिता-

नवधिकातिशय - -प्रीतिकारिताशेषावस्थोचिताशेषशेषतै कर करतिरूप-
नित्य

नित्य
कैडूङ्क​र्यप्राप्त्युपायभूत क्तिभक्ति - तदुपाय - सम्यज्ज्ञानतदुपाय-
•.

समीचीनक्रिया - तदनुगुण - सात्विकतास्तिक्यादि - समस्तात्म-

गुरगण​​विहीनः, - १
 
-
 

 
दुरुत्तरानन्तत द्विपर्यय-ज्ञान क्रियानुगुरगाणानादिपापवासनामहा-

र्णवान्तर्निमग्नः, २
 

 
 
भगवान् की नित्य नियाम्यता और दास्य​ भावना की

एकरसता जीवात्मा का स्वभाव है । इस स्वभाव के अनु-

सन्धान (चिन्तन) के साथ भगवान् का इस प्रकार अनुभव

होना चाहिये कि उनके असीम एवं अतिशय स्वामित्व आदि

गुण समूह का अनुभव असीम अतिशय प्रीति का प्रदाता है ।

इस प्रीति द्वारा समस्त अवस्थाओं के अनुरूप परिपूर्ण शेष-

भावापन्न प्रीतियुक्त नित्य केंकैंकर्य प्राप्त होता है। ऐसे कैंकर्य

की प्राप्ति का उपाय भक्ति है। इसका साधन है सम्यक् ज्ञान ।

सम्यक् ज्ञान को प्राप्त करने का उपाय है समुचित किया । यह
क्रिया । यह
क्रिया
साधक में सात्विकता, आस्तिकता आदि समस्त आत्म-

गुणों के रहने पर ही सम्भव होती है। किन्तु मैं इन समस्त

आत्म​
गुणों से रहित हूँ । १
 

 
इसके अतिरिक्त विपरीत ज्ञान, क्रिया एवं प्रात्मगुणों के

कारण अनादि वासना के पार जाने में अत्यन्त दुस्तर अनन्त

महासागर में डूबा हुआ हूँ । २