This page has not been fully proofread.

( २१ )
 
स्वात्मनित्यनियाम्यनित्यदास्यैकरसात्म-स्वभावानुसन्धान-
पूर्वक भगवदनवधिकातिशयस्वाम्यद्य खिल-गुरगगरगानुभवजनिता-
नवधिकातिशय - प्रीतिकारिताशेषावस्थोचिताशेषशेषतै कर तिरूप-
नित्य कैडूर्यप्राप्त्युपायभूत क्ति तदुपाय - सम्यज्ज्ञानतदुपाय-
•.
समीचीनक्रिया - तदनुगुरण - सात्विकतास्तिक्यादि - समस्तात्म-
गुरगविहीनः, - १
 
-
 
दुरुत्तरानन्तत द्विपर्यय-ज्ञान क्रियानुगुरगानादिपापवासनामहा-
र्णवान्तनिमग्नः, २
 
भगवान् की नित्य नियाम्यता और दास्थ भावना की
एकरसता जीवात्मा का स्वभाव है । इस स्वभाव के अनु-
सन्धान (चिन्तन) के साथ भगवान् का इस प्रकार अनुभव
होना चाहिये कि उनके असीम एवं अतिशय स्वामित्व आदि
गुरण समूह का अनुभव असीम अतिशय प्रीति का प्रदाता है ।
इस प्रीति द्वारा समस्त के अनुरूप परिपूर्ण शेष-
भावापन्न प्रीतियुक्त नित्य केंकर्य प्राप्त होता है। ऐसे कैंकर्य
की प्राप्ति का उपाय भक्ति है। इसका साधन है सम्यक् ज्ञान ।
सम्यक् ज्ञान को प्राप्त करने का उपाय है समुचित किया । यह
क्रिया साधक में सात्विकता, आस्तिकता आदि समस्त आत्म-
गुणों के रहने पर ही सम्भव होती है। किन्तु मैं इन समस्त
गुणों से रहित हूँ । १
 
इसके अतिरिक्त विपरीत ज्ञान, क्रिया एवं प्रात्मगुरणों के
कारण अनादि वासना के पार जाने में अत्यन्त दुस्तर अनन्त
महासागर में डूबा हुआ हूँ । २