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( २० )
 
यौं

 
र्यौ
दार्यचातुर्यस्थैर्य - धर्यशौर्यपराक्रमसत्यकामसत्यसङ्कल्पकृतित्व-

कृतज्ञताद्य संख्येयकल्यारणगुरणगरगौघमहावं, - २
 
परब्रह्मभूतं, पुरुषोत्तमं श्रीरङ्गशायिनम् अस्मत्स्वामिनं,
प्रबुद्धनित्यनियाम्यनित्यदास्यै करसात्मस्वभावोऽहं, तदेकानुभव:,
तदेकप्रियः - ३
 
परिपूर्ण, भगवन्तं विशदतमानुभवेन निरन्तरमनुभूय,
तदनुभवजनितानवधिकातिशय-प्रीतिकारिताशेषावस्थोचिताशेष-
शेषतं कर तिरूप नित्य किङ्करो भवानि ।
 
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(१)
 
शौर्य, पराक्रम, सत्यकामता सत्यसंकल्पता, उपकारिता, कृत-
ज्ञता आदि असंख्य
कल्याणगुणगणौघमहार्णवं, -- २
 
परब्रह्मभूतं, पुरुषोत्तमं श्रीरङ्गशायिनम् अस्मत्स्वामिनं,
प्रबुद्धनित्यनियाम्यनित्यदास्यैकरसात्मस्वभावोऽहं, तदेकानुभव:,
तदेकप्रियः -- ३
 
परिपूर्ण, भगवन्तं विशदतमानुभवेन निरन्तरमनुभूय,
तदनुभवजनितानवधिकातिशय-प्रीतिकारिताशेषावस्थोचिताशेष-
शेषतैकरतिरूपनित्यकिङ्करो भवानि । (१)
 
शौर्य, पराक्रम, सत्यकामता सत्यसंकल्पता, उपकारिता, कृत-
ज्ञता आदि असंख्य कल्याणगुण
समूह रूपी जलप्रवाह के

महासागर हैं, – २
 

 
जो परब्रह्मभूत
वाले हैं, मेरे स्वामी हैं-
पुरुषोत्तम हैं, श्रीरंगधाम में शयन करने
 

वाले हैं, मेरे स्वामी हैं--
 
उन भगवान् की नित्य नियाम्यता और नित्य दास्यभावना

की एक रसता जीवात्मा का स्वभाव है ऐसा भली भाँति जान

कर उनके ही अनुभव में संलग्न तथा उनको ही अपना प्रियतम
 

मानकर, - ३
 

 
नित्य विशदतम अनुभव के द्वारा उन परिपूर्ण भगवान्

का अनुभव कर इस अनुभव के द्वारा असीम एवं अतिशय प्रोरी​ति

प्राप्त कर तथा इस प्रीति के फलस्वरूप समस्त अवस्थाओं

के अनुरूप परिपूर्ण शेषभावापन्न नित्य किंकर बनूंनूँ ॥१॥