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( १७ )
 

 
नवधिकातिशय - प्रियमदनुभवस्त्वं
 
तथाविधमदनुभवजनिता-

नवधिकातिशय - प्रीतिकारिताशेषावस्थोचिता शेषशेषतै कर करतिरूप-

नित्यकिङ्करो भविष्यसि ॥२१॥
 
-
 

 
मा ते भूदत्र संशयः ॥२२॥
 
सकृदेव
 
प्रभयं
 
Simsin
 

 
अनृतं नोक्तपूर्वं मे न च वक्ष्ये कदाचन ।
हवाम

... ... ... ...
रामो द्विर्नाभिभाषते ।
 

सकृदेव
प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते ।
 

अभयं
सर्वभूतेभ्यो
 
ददाम्येतद्व्रतं
 
मम ॥
 
मम ॥
सर्वधर्मान्परित्यज्य
 
मामेकं शरणं व्रज ।
 
श्र

हं त्वा सर्वापापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
 

 
 
मेरा अनुभव प्राप्तकर उसके फलस्वरूप असीम, अतिशय प्रीति

के द्वारा समस्त अवस्थाओं के अनुरूप परिपूर्ण शेषभावापत्र
न्न​
प्रीति से युक्त नित्य किंकर होगे ॥२१॥
 

 
इसमें तुमको किसी प्रकार संशय नहीं होना चाहिये ॥२२॥

मैंने पहिले कभोभी असत्य नहीं कहा और नान​ आगे कभी कहूंगा ।

राम दो प्रकार की बातें नहीं कहता ।
 

 
जो शरणागत एक बार भी 'मैं आपका हूँ', यह कहकर

मुझ से रक्षा-याचना करता है उसे मैं सम्पूर्ण भूतों से निर्भय

कर देता हूँ । यह मेरा व्रत है ।
 

 
समस्त धर्मों ( कर्मयोग, ज्ञानयोग एवं भक्तियोग ) को

छोड़कर तुम एकमात्र मेरी शरण में आजाश्रो । मैं तुमको

समस्त पापों से मुक्त कर दूंदूँगा । शोक न करो ।