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( १५ )
 
(3 मत्प्रसादलब्ध-मच्चरणारविन्द-युगलंकान्तिकात्यन्तिकपर-
भक्तिपरज्ञानपरमभक्तिः, ४
 
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मत्प्रसादादेव साक्षात्कृत यथाव स्थित मत्स्वरूपरूपगुरग विभूति-
लोलोपकररणविस्तारः, ५
 
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अपरोक्ष सिद्धमन्नियाम्यतामद्दास्यै कस्वभावात्मस्वरूपः, मदे-
कानुभव:, मद्दास्यैकप्रियः, परिपूर्णानवरतनित्य विशदतमानन्य-
प्रयोजनानवधिकातिशय प्रियमदनुभवस्त्व, ६
 
तथाविधमदनुभवजनितानवधिकातिशय-प्रीतिकारिताशेषा-
वस्थोचिता शेषशेषतंकर तिरूप नित्यकिङ्करो भव । ( १८ )
 

 
मेरी प्रसन्नता के फलस्वरूप तुमको मेरे युगलचरणारविन्द
की ऐकान्तिक प्रात्यन्तिक परभक्ति, परज्ञान एवं परमभक्ति

प्राप्त होगी । ४
 
मेरी प्रसन्नता से ही मेरे स्वरूप, रूप, गुरण, विभूति एवं
लीलोपकरण के विस्तार का पूर्णतया साक्षात्कार करोगे । ५०
* प्रत्यक्षसिद्ध मेरी नियाम्यता तथा मेरी दास्यता ही तुम्हारा
स्वरूप है। ऐसा मेरा अनुभव तुमको होगा। मेरे प्रति एक
दास्यभाव से तुमको प्रीति होगी। परिपूर्ण अविच्छिन्न, नित्य
विशदतम, अन्य प्रयोजन से रहित असीम अतिशय
मेरा अनुभव होगा । ६
 
प्रीति रूप
 
इस प्रकार के अनुभव के फलस्वरूप
प्रीति के द्वारा समस्त
•शेषभावापन्न प्रीतियुक्त नित्य किंकर बनोगे ॥१८॥
 
रावत
 
असीम एवं अतिशय
के अनुरूप परिपूर्ण