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परभक्तिपरज्ञानपरमभक्तिकृतपरिपूरणनवरत नित्य विशद-
तमानन्यप्रयोजनानवधिकातिशय प्रियभगवदनुभवोऽहं तथाविध-
भगवदनुभवजनितानवधिकातिशयप्रीतिकारिताशेषावस्थोचिता-
शेषशेषतं करतिरूप नित्यकिङ्करो भवानि (१७)

एवंभूतमत्कैङ्कर्य प्राप्त्युपायतयाऽवक्लृप्तसमस्तवस्तुविहीनो-
इपि, अनन्ततद्विरोधिपापाक्रान्तोऽपि, अनन्तमदपचारयुक्तोऽपि,
अनन्तमदीयापचारयुक्तोऽपि, अनन्तासह्यापचारयुक्तोऽपि, १
 
एतत्कार्यकार रणभूतानादिविपरीताहङ्कारविमूढात्मस्वभावो-
डपि, एतदुभय कार्यकाररणभूतानादिविपरीतवासनासंबद्धोऽपि,
 
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Sara
 
मुझे परभक्ति, परज्ञान एवं परमभक्ति के द्वारा परिपूर्ण,
अनवरत, नित्य विशदतम, अन्य प्रयोजन से रहित, असीम
अतिशय प्रीति रूपी भगवदनुभव हो । ऐसे भगवदनुभव के
फलस्वरूप असीम एवं अतिशय प्रीति के द्वारा समस्त
नित्य
 
अवस्थाओं के अनुरूप परिपूर्ण शेषभावापन्न प्रीतियुक्त नि
 
किंकर होऊँ ॥१७॥
 
यद्यपि इस प्रकार मेरे कैंकर्य की प्राप्ति के लिये जो
उपाय बताये गये हैं उन समस्त साधनों से तुम रहित
हो, उनके विरोधी अनन्त पापों से आक्रान्त भी हो, असंख्य
मेरे ग्रपचारों से युक्त हो, असंख्य भागवतापचारों से सम्पन्न
हो, असंख्य असह्य अपचारों से युक्त हो । १
 
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इन अपचारों का कारण है अनादि विपरीत अहंकार
जिसने तुम्हारे स्वभाव को भी मूढ बना दिया। इन अपचारों