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(१२.)
स्थितस्स हियुक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम् ॥
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
वासुदेवस्सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥
इति श्लोकत्रयोदितज्ञानिनं मां कुरुष्व ।
पुरुषस्स परः पार्थ भक्तचा लभ्यस्त्वनन्यया ।
भक्तया त्वनन्यया शक्यः
(१४)
मद्भक्ति लभते पराम् ॥
(१५)
इति स्थानत्रयोदितपरभक्तियुक्तं मां कुरुष्व ।
परभक्तिपरज्ञानपरमभक्त्येकस्वभावं मां कुरुष्व । (१६)
आदि सब कुछ हैं ऐसा ज्ञानी महात्मा संसार में अत्यन्त
दुर्लभ है ।
उपर्युक्त तीन श्लोकों में जैसे ज्ञानी भक्त का वर्णन किया
गया है वैसा ही ज्ञानी भक्त मुझे बनाइये ॥१४॥
अर्जुन ! वह परम पुरुष अनन्य भक्ति से प्राप्त होता है ।
अनन्य भक्ति के द्वारा ही मैं तत्त्वतः जाना, देखा और
प्रवेश किया जा सकता हूँ ।
मेरी परम भक्ति को प्राप्त करता है ।
उपर्युक्त तीनों स्थानों पर जिस परभक्ति का निर्देश
किया गया है उससे मुझे सम्पन्न बनाइये ॥१५॥
परभक्ति, परज्ञान और परमभक्ति ही जिसका स्वभाव हो
ऐसा मुझे बनाइये ॥१६॥
स्थितस्स हियुक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम् ॥
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
वासुदेवस्सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥
इति श्लोकत्रयोदितज्ञानिनं मां कुरुष्व ।
पुरुषस्स परः पार्थ भक्तचा लभ्यस्त्वनन्यया ।
भक्तया त्वनन्यया शक्यः
(१४)
मद्भक्ति लभते पराम् ॥
(१५)
इति स्थानत्रयोदितपरभक्तियुक्तं मां कुरुष्व ।
परभक्तिपरज्ञानपरमभक्त्येकस्वभावं मां कुरुष्व । (१६)
आदि सब कुछ हैं ऐसा ज्ञानी महात्मा संसार में अत्यन्त
दुर्लभ है ।
उपर्युक्त तीन श्लोकों में जैसे ज्ञानी भक्त का वर्णन किया
गया है वैसा ही ज्ञानी भक्त मुझे बनाइये ॥१४॥
अर्जुन ! वह परम पुरुष अनन्य भक्ति से प्राप्त होता है ।
अनन्य भक्ति के द्वारा ही मैं तत्त्वतः जाना, देखा और
प्रवेश किया जा सकता हूँ ।
मेरी परम भक्ति को प्राप्त करता है ।
उपर्युक्त तीनों स्थानों पर जिस परभक्ति का निर्देश
किया गया है उससे मुझे सम्पन्न बनाइये ॥१५॥
परभक्ति, परज्ञान और परमभक्ति ही जिसका स्वभाव हो
ऐसा मुझे बनाइये ॥१६॥