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( ११ )
 
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विपरीतज्ञानजननीं स्वविषयायाश्च भोग्यबुद्धेर्जननीं देहेन्द्रिय-12
त्वेन भोग्यत्वेन सूक्ष्मरूपेरण चावस्थितां देवों गुरगमयीं मायां, 7 म
दासभूतम् 'शरणागतोऽस्मि, तवास्मि दासः' इति वक्तारं
मां तारय ।
 
(१३)
 
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तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिविशिष्यते ।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ॥
उदारास्सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् ।
 
जननी है, अपने विषय में भोग्यबुद्धि उत्पन्न करने वाली है,
देह, इन्द्रिय, शब्द आदि गुण तथा सूक्ष्म इन चार रूपों में
स्थित है ऐसी माया से मुझ दास का उद्धार करो; क्योंकि मैं
आपके शरणागत हूँ और दास हूँ इस प्रकार कह
चुका हूँ ॥१३॥
 
तं, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी इन चार प्रकार के
भक्तों में आत्मा को शेषभूत और भगवान् को ही परमप्राप्य
मानने वाला ज्ञानी, जो नित्ययुक्त होता है और जिनकी भक्ति
भगवत्प्राप्ति के लिये होती है श्रेष्ठ होता है ।
 
ये चारों प्रकार के भक्त उदार हैं किन्तु ज्ञानी तो मेरा
अन्तरात्मा ही है । वह मुझको ही परमप्राप्य मानकर सदा
मुझ में ही स्थित रहता है ।
 
बहुत से पुण्यमय जन्मों के पश्चात् ऐसा ज्ञानी भक्त मेरी
शरण ग्रहण करता है । भगवान् वासुदेव ही मेरे प्राप्य, प्रापक