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( ६ )
 
त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बन्धुश्च गुरुस्त्वमेव ।
त्वमेव विद्या द्रविरगं त्वमेव त्वमेव सर्वं मम देवदेव ॥ ( ८ )
पिताऽसि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुगरीयान् ।
न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव ॥
तस्मात्प्ररणम्य प्ररिणधाय कायं प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम् ।
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायाहंसि देव सोढुम् ॥
 
कर मैं आपके चरणों की, जो समस्त लोकों के अधिष्ठाता हैं
शरण लेता हूँ ॥७॥
 
देवदेव ! आप ही माता हैं, आप ही पिता हैं, आप ही
बन्धु हैं, आप ही गुरु हैं, आप ही विद्या हैं,
ही धन हैं,
आप ही मेरे सर्वस्व हैं ॥८॥
 
अप्रतिम प्रभावशाली
 
! श्राप इस चराचर
 
लोक के पिता
 
हैं, परम पूजनीय गुरु हैं । त्रिलोकी में आप के समान कोई
नहीं है; आप से बढ़कर तो कोई हो ही कैसे सकता है ॥६॥
 
इसलिये स्तुति करने के योग्य आप सर्वेश्वर को प्ररणाम
करके शरीर को चरणों में डालकर (सांग शरणागति द्वारा )
मैं प्रसन्न करता हूँ । देव ! जिस प्रकार पिता पुत्र का और
मित्र मित्र का अपराध सहन कर लेते हैं, उसी प्रकार मेरे
प्रेम के विषय आप अपने प्रेम के विषयभूत मेरे अपराध
क्षमा करें ॥१०॥