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( ८ )
 

 
निखिलजगदाधार ! अखिलजगत्स्वामिन् ! श्रस्मत्स्वामिन् !

सत्यकाम ! सत्यसङ्कल्प ! सकलेतरविलक्षण ! अर्थिकल्पक !

आपत्सख ! श्रीमन् ! नारायण ! प्रशरण्यशरण्य !! २३-३६

 
अनन्यशरणः त्वत्पादारविन्दयुगलं शररगमहं प्रपद्ये । ( ५ )
 

 
अत्र द्वयम् ।
(६)
 
अत्र द्वयम् ।
 

 
पितरं मातरं दारान् पुत्रान्बन्धून्सखीन्गुरुन् ।

रत्नानि धनधान्यानि क्षेत्रारिगणि च गृहारिगणि च ॥

सर्वधर्मांश्च संत्यज्य सर्वकामांश्च साक्षरान् ।

लोकविक्रान्तचरणौ शरणं तेऽब्रजं विभो ॥
 
(७)
 

 
आप
सम्पूर्ण जगत के स्वामी हैं। आप मेरे स्वामी हैं ।

सत्यकाम और सत्य संकल्प हैं । अपने अतिरिक्त समस्त

पदार्थों से आप विलक्षण हैं। आप याचकों के लिये कल्पवृक्ष
 

हैं, आपत्ति में सहायक हैं । लक्ष्मी के स्वामी हैं, आप

नारायण हैं। जिनके लिये कहीं भी शरण नहीं है उनको भी

शरण देने वाले हैं। २३-३६
 

 
मैं अनन्य शरण आपके चरणकमलों की
शरण ग्रहण
करता हूँ । ॥५॥
 

 
यह द्वय मन्त्र की व्याख्या है ॥६॥
 
शरण ग्रहरण
 

 
विभो ! पिता, माता, पत्नी, पुत्र, बन्धु, सखा, गुरु, रत्न,

धन-धान्य, क्षेत्र, गृह, सारे धर्म अर्थात् समस्त साधन और

साध्य, तथा आत्मानुभव पर्यन्त समस्त कामनाओं को त्याग