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सत्यकाम ! सत्यसङ्कल्प ! परब्रह्मभूत ! पुरुषोत्तम !

महाविभूते ! श्रीमन् ! नारायण ! श्रीवैकुण्ठनाथ ! ११-१८

 
अपारकारुण्य - सौशील्य - वात्सल्यौदार्येयैश्वर्य - सौन्दर्य-

महोदधे ! १६gy18150
 

 
अनालोचित विशेषाशेषलोकशरण्य ! प्रणतार्त्तिहर! आश्रि-

तवात्सल्यैकजलधे ! २०-२२
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अनवरत विदितनिखिलभूतजातयाथात्म्य ! श्रशेषचराचर-

भूत निखिलनियमन निरत ! अशेष चिदचिद्वस्तुशेषिभूत !
 

 
 
आप
सत्यकाम, सत्यसंकल्प, परब्रह्मस्वरूप, पुरुषोत्तम

महावैभवसम्पन्न श्रीमान्, नारायण और श्रीवैकुण्ठधाम के

नाथ हैं । ११-१८
 
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आप अपार​
करुणा, सुशीलता, वत्सलता, उदारता,

ऐश्वर्य एवं सुन्दरता के महासमुद्र हैं । १६
 

 
गुरग विशेष का विचार किये बिना आप सम्पूर्ण जगत

को शरण देने के लिये प्रस्तुत हैं, शरणागत के समस्त दुःखों

को दूर करने वाले हैं, शरणागतवत्सलता के एकमात्र

समुद्र हैं । २०-२२
 

 
आपको सम्पूर्णभूतों के यथार्थ स्वरूप का निरन्तर ज्ञान

रहता है। सम्पूर्ण चेतनाचेतन जगत की समस्त क्रियाओं के

नियमन करने में आप संलग्न रहते हैं। आप समस्त चेतना-

चेतन पदार्थों के शेषी हैं तथा सम्पूर्ण जगत के आधार हैं ।