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( फ )
 

 
ग. नित्य -- इसका अन्त नहीं होता ।
 

 
घ. विशदतम-- अनुभव का इससे अधिक विस्तार नहीं
होता ।
 
-
 

होता ।
 
ङ. अनन्य प्रयोजन – इस अनुभव का अन्य कोई प्रयोजन

भी नहीं होता ।
 

 
च.
 
अनवधिकातिशय –- यह पूर्ण प्रीतिरूप होता है ।
 

 
२. मुक्त पुरुष का यह अनुभव प्रीति, प्रीति से रति

और रति से कैंकर्य की दशा को प्राप्त होता है । अनुभव का

तात्पर्य है शेषत्वज्ञान, प्रीति है तदनुकूल बुद्धि, रति है तदनु-

कूल इच्छा और कैंकर्य है तदनुकूल ध्यवहार ।
 

 
३. भगवदनुभव के फलस्वरूप होनेवाली प्रीति परिपूर्ण

होती है और प्रीति जब रति का भाव ग्रहण करती है तो

उसमें समस्त अवस्थाओं के अनुरूप शेषभाव रहता है । यही

कैंकर्य का प्रधान स्वरूप है ।
 

 
४. उपर्युक्त भगवदनुभव की स्थिति के पहिले की तीन

अवस्थायें परभक्ति, परज्ञान और परम भक्ति हैं जिनको

क्रमशः प्राप्त कर लेने के पश्चात् भगवदनुभव होता है । इन

तीन अवस्थाओं से अभिप्राय यह हैं -
 
क. परभक्ति
-
 
क. परभक्ति -
- साक्षात्कार करने की इच्छा ।
 

 
ख. परज्ञान -- उत्तरोत्तर साक्षात्कार ।
 

 
ग. परमभक्ति–निरन्तर अनुभव की आकांक्षा ।