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( प )
 
मानसिक जैसे काम, क्रोध, लोभ, भय आदि;
शारीरिक रोग ।
 
आधिदैविक–अग्नि, वायु बिजली आदि से प्राप्त
होने वाले सुख-दुःख ।
 
आधिभौतिक - पशु, पक्षी, मनुष्य आदि से प्राप्त
होने वाले सुख-दुःख ।
 
लक्ष्य -—बद्ध अवस्था चेतन की स्वाभाविक अवस्था नहीं है ।
इस अवस्था में उसका अपना स्वरूप तिरोहित (छिपा )
रहता है । तत्त्वतः चेतन भगवान् का शेषभूत है,
भगवान् उसके शेषी हैं । इस स्वरूप की पूर्ण अनुभूति
उसे प्रकृति के बन्धन से मुक्त होने पर होती है । इस
अनुभूति का पर्यवसान भगवदनुभूति में होता है और
भगवदनुभूति की पूर्ति भगवान् के नित्य केंकर्य में होती
है जो चेतन को नित्य विभूति में प्राप्त होता है । यही
चेतन का परम लक्ष्य है । शरणागतिगद्य के २, १७,
१८ व २१ श्रीरंग गद्य के १, २ व ३ और वैकुण्ठगद्य के
४, ५, ६ व ७ वाक्यों में इसका वर्णन है । इसका
सार यह है-
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१. मुक्त होने पर चेतन को भगवान् का जो अनुभव प्राप्त
होता है उसकी विशेषतायें ये हैं-
क. परिपूर्ण – यह अनुभव परिपूर्ण होता है ।
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ख. अनवरत - इसका क्रम बीच में नहीं टूटता ।
 
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