2023-04-08 05:09:16 by Krishnendu
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( ध )
प्रकृति सम्बन्ध से मुक्त होकर इस भाव को प्राप्त होते हैं
।
ये नित्य और मुक्त सदा भगवान् का अनुभव और कैंकर्य करते
रहते हैं । बद्ध वे हैं जो अभी तक संसार से मुक्त नहीं हो
सके हैं ।
सके हैं ।
बद्ध चेतन -- चेतन को बन्धन की यह अवस्था कहाँ से
और कैसे प्राप्त हुई ? इस प्रश्न का उत्तर शरणागति गद्य
के ११, १२, १३, १८ तथा २१ संख्या के वाक्यों में है । इन
वाक्यों से प्रकट होता है कि अनादि कर्मप्रवाह के कारण
चेतन की प्रवृत्ति प्रकृति की ओर है और वह संसार के बन्धन
में है। पाप ( विपरीत कर्म ), अहंकार ( विपरीत ज्ञान )
और वासना के अन्योन्याश्रित सम्बन्ध ने इस कर्म के प्रवाह
को बनाये रक्खा है । फलस्वरूप चेतन का अपना स्वरूप
जागृत नहीं हो पाता । वह विपरीत ज्ञान और विपरीत कर्म
के परिणामों को त्रिविध तापों के रूप में भोगता रहता है ।
कर्म, पाप, अहंकार, वासना और त्रिविध तापों की
व्याख्या इस प्रकार की जाती है -
१.
-
कर्म – कर्म के तीन भेद हैं -- प्रारब्ध, सञ्चित औरक्रियमरण ।
प्रारब्ध - जिनका भोग प्रारम्भ हो गया है ।
२. संचित – जिनका भोग अभी आरम्भ नहीं हुआ है ।
क्रियमाण ।
१. प्रारब्ध -- जिनका भोग प्रारम्भ हो गया है ।
२. संचित – जिनका भोग अभी आरम्भ नहीं हुआ है ।
३. क्रियमाण – जो किये जारहे हैं । कालभेद से इसके
तीन प्रकार हैं-- भूत, वर्तमान और भविष्य । भूत-
-
जो किये जा चुके हैं, वर्तमान -- जो किये जा रहे हैं
और भविष्य -- जो किये जाने वाले हैं ।
३.
कर्म – कर्म के
प्रकृति सम्बन्ध से मुक्त होकर इस भाव को प्राप्त होते हैं
ये नित्य और मुक्त सदा भगवान् का अनुभव और कैंकर्य करते
रहते हैं । बद्ध वे हैं जो अभी तक संसार से मुक्त नहीं हो
सके हैं ।
सके हैं ।
बद्ध चेतन -- चेतन को बन्धन की यह अवस्था कहाँ से
और कैसे प्राप्त हुई ? इस प्रश्न का उत्तर शरणागति गद्य
के ११, १२, १३, १८ तथा २१ संख्या के वाक्यों में है । इन
वाक्यों से प्रकट होता है कि अनादि कर्मप्रवाह के कारण
चेतन की प्रवृत्ति प्रकृति की ओर है और वह संसार के बन्धन
में है। पाप ( विपरीत कर्म ), अहंकार ( विपरीत ज्ञान )
और वासना के अन्योन्याश्रित सम्बन्ध ने इस कर्म के प्रवाह
को बनाये रक्खा है । फलस्वरूप चेतन का अपना स्वरूप
जागृत नहीं हो पाता । वह विपरीत ज्ञान और विपरीत कर्म
के परिणामों को त्रिविध तापों के रूप में भोगता रहता है ।
कर्म, पाप, अहंकार, वासना और त्रिविध तापों की
व्याख्या इस प्रकार की जाती है -
१.
कर्म – कर्म के तीन भेद हैं -- प्रारब्ध, सञ्चित और
प्रारब्ध - जिनका भोग प्रारम्भ हो गया है ।
२. संचित – जिनका भोग अभी आरम्भ नहीं हुआ है ।
१. प्रारब्ध -- जिनका भोग प्रारम्भ हो गया है ।
२. संचित – जिनका भोग अभी आरम्भ नहीं हुआ है ।
३. क्रियमाण – जो किये जारहे हैं । कालभेद से इसके
तीन प्रकार हैं-- भूत, वर्तमान और भविष्य । भूत-
जो किये जा चुके हैं, वर्तमान -- जो किये जा रहे हैं
और भविष्य -- जो किये जाने वाले हैं ।
३.
कर्म – कर्म के