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४. इस जगत् में चार विभाग मिलते हैं - भोग्य, भोक्ता,
भोगोपकरण और भोगस्थान । शब्द, स्पर्श, रूप, रस
और गन्ध भोग्य हैं । चेतन जीवात्मा भोक्ता हैं । इन्द्रियाँ
भोगोपकरण हैं और शरीर से लेकर ब्रह्माण्ड तक सारे
भोगस्थान हैं ।
 
नित्यविभूति – लीलाविभूति से परे भगवान् की नित्य-
विभूति है शरणागति गद्य के ५ वें वाक्य के ε वें सम्बोधन
में संक्षिप्त रूप से तथा वैकुण्ठगद्य में विस्तृत रूप से इसका
वर्णन किया गया है । तात्पर्य इस प्रकार है-
१. नित्यविभूति नित्य, दिव्य एवं अनन्त है ।
२. वैकुण्ठधाम, परम व्योम आदि इसके नाम है ।
यह दिव्यधाम वारगी एवं मन के लिये अगोचर है ।
आदि का पूरा
 
३.
 
४. इसका स्वरूप, वभाव, परिमारण, ऐश्व
 
ज्ञान इस जगत् में अशक्य है । ऋषियों एवं देवताओं के
लिये यह दिव्यधाम अचिन्त्य है ।
 
५. इस दिव्यधाम में भगवान् के अभिमत अनन्त भोग्य,
भोगोपकरण एवं भोगस्थान हैं। दिव्यधाम के चारों ओर
दिव्य आवरण हैं, मध्य में दिव्य उद्यान हैं जिनके केन्द्र में
दिव्य प्रायन है । यह दिव्य त उन दिव्य उपवनों से
 
सुशोभित है जिनमें दिव्य लीलामण्डप क्रीडा मण्डप एवं
बावलियाँ हैं । दिव्य शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध का
अनुभव होता है ।