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का निर्देश करता है । व्यूह का संकेत शरणागतिगद्य के
जगदुदयविभवलयलील' में तथा 'नारायण' में मिलता है ।
भगवान् के इन सभी रूपों की विशेषतायें शरणागति गद्य के
५ वें वाक्य के दूसरे सम्बोधन के अनुसार इस प्रकार हैं-
स्वाभिमत -- जो भगवान् को सदा अभिमत है अर्थात्
कभी अप्रिय नहीं होता ।
 
-
 
१.
 
२.
 
अनुरूप - - जो कभी अपने स्वरूप का बाधक नहीं होता ।
३. एकरूप -- जो सदा एक रूप रहता है । कभी विकारयुक्त
नहीं होता ।
 
४. प्रचिन्त्य -- उस जैसा कोई दूसरा रूप नहीं होता। जो
तर्क से परे है ।
 
५. दिव्य - - जो पाञ्चभौतिक नहीं है ।
 
६.
 
अद्भुत -- जो आश्चर्यमय है । सदा नवीन लगता है ।
७. नित्य - - जो नित्य है ।
 
८.
 
निरवद्य - - जो शरीरगत दोषों से रहित है ।
 
६.
 
१०.
 
प्रज्ज्वल्य -- जो प्रकाशमान है ।
 
सौन्दर्य - - जिसका एक एक अंग सुन्दर है ।
 
११.
 
१२.
 
सौगन्ध्य-- जो सुगन्ध से युक्त है।
सौकुमार्य -- जो सुकुमार है ।
लावण्य -- जो पूर्ण रूप से सुन्दर है ।
१४. यौवन - - जो यौवन से सम्पन्न है ।
 
१३.
 
इन विशेषताओं में से अचिन्त्य, दिव्य, अद्भुत, नित्य,
यौवन, लावण्य, सौकुमार्य आदि का उल्लेख वैकुण्ठगद्य में भी