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( झ )
 
स्वरूप - शरणागति गद्य के ५ वें वाक्य का पहिला
सम्बोधन शरण्य के स्वरूप को इस प्रकार प्रकट करता है—
 
( १ ) वह समस्त हेयगुणों से रहित हैं। अचेतन पदार्थो
में होने वाले विकार तथा चेतनों को होने वाले दुःख, अज्ञान
आदि उनमें नहीं होते।
 
( २ ) वह समस्त कल्याणों के आधार हैं ।
 
( ३ ) वह अपने से भिन्न समस्त चेतन एवं अचेतन पदार्थों
से विलक्षण हैं ।
 
(४) वह अनन्त अर्थात् देश, काल और वस्तु की सीमा
से वह सीमित नहीं है ।
 
( ५ ) वह ज्ञानानन्द के एक स्वरूप हैं ।
 
( क ) ज्ञान के कारण वह स्वयं प्रकाश और प्रानन्द के
कारण प्रिय हैं ।
 
(ख) आनन्द भी एक विशेष प्रकार का ज्ञान ही तो है ।
ऐसा आनन्द उनका स्वरूप है ।
 
(ग) उनका स्वरूप चिन्मय आनन्द है, जड़ आनन्द नहीं ।
आनन्द के पहिले ज्ञान शब्द इस तथ्य को प्रकट करता है ।
 
रूप- -पाचरात्र आगम ने भगवत्तत्त्व के
 
पांच प्रकार
 
बताये हैं । ये हैं—पर, व्यूह, विभव, अन्तर्यामी और अर्चा ।
शरणागतिगद्य और वैकुण्ठगद्य में पर रूप का स्पष्ट वर्णन है ।
श्रीरङ्गगद्य में 'काकुत्स्थ' विभव का और 'श्रीरङ्गनाथ' अर्चा
 
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