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( छ )
 
श्री वेदान्तदेशिक ने भगवान् श्री रंगनाथ की प्रार्थना की है-
उक्त्या धनञ्जयविभीषणलक्ष्यया ते प्रत्याय्य लक्ष्मरणमुनेर्भवतावतीर्णम् ।
श्रुत्वा वरं तदनुबन्धमदावलि दिव्यं प्रसीद भगवन् मयि रङ्गनाथ ॥
 
( न्यासतिलक २२ )
 
रंगनाथ भगवन् ! अर्जुन और विभीषण के लिये कहे
गये वचनों से विश्वास दिलाकर आपने श्री रामानुजाचार्य को
जो वरदान दिया था उसका लाभ प्राचार्य की शिष्यपरम्परा
तक पहुँचता है यह मेरे गर्व की बात है । शिष्यपरम्परा
के द्वारा मेरा आचार्य से सम्बन्ध है अतः आप मुझ पर
प्रसन्न हों ।
 
उपर्युक्त उद्धरणों के अनुसार भगवान् रामानुजाचार्य
की परम्परा उनके अनुष्ठान में अपने साधन का अनुभव करती
है तथा भगवान् के द्वारा दिये गये वरदान को अपने लिये
भी मानती है ।
 
सिद्धान्तचर्चा की पद्धति
 
सिद्धान्तचर्चा के अनेकों प्रकार हैं प्राचीन व्याख्याकारों
ने शरणागति मन्त्र के विशेषार्थों की दृष्टि से गद्यत्रय पर
विचार किया है । शरणागति मन्त्र ने जिस शरणागति का
विधान किया है उसकी त्रिपुटी में शरण्य, शरणागत और
शरणागति का ग्रहण होता है । इसी क्रम से यहाँ विचार
 
करेंने ।