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गोविन्द-दामोदर-स्तोत्र
 
( ३५ )
श्रीराधिकाजी श्रीकृष्णके अलग हो जानेपर कमलवनमें कुसुमशय्यापर सोकर अपने विकसित कमलसदृश लोचनोंसे आँसू बहाती हुई 'हा गोविन्द ! हा दामोदर ! हा माधव !' कहकर क्रन्दन करने लगीं।
 
( ३६ )
माता-पिता आदिसे घिरी हुई श्रीराधिकाजी घरके भीतर प्रवेशकर विलाप करने लगी कि 'हे विश्वनाथ ! हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव ! तुम आकर मेरी रक्षा करो ! रक्षा करो !!'
 
( ३७ )
रात्रिका समय था, किसी गोपीको भ्रम हो गया कि वृन्दावनविहारी इस समय वनमें विराजमान हैं। बस फिर क्या था, झट उसी ओर चल दी । किन्तु जब उसने निर्जन वनमें वनमालीको न देखा, तो डरसे काँपती हुई 'हा गोविन्द ! हा दामोदर ! हा माधव !' कहने लगी ।
 
( ३८ )
[ वनमें न भी जायँ ] अपने घरमें ही सुखसे शय्यापर शयन करते हुए भी जो लोग 'हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव !' इन विष्णुभगवान्के पवित्र नामोंको निरन्तर कहते रहते हैं वे निश्चय ही भगवान्की तन्मयता प्राप्त कर लेते हैं ।
 
( ३९ )
कमललोचना राघाको श्रीगोविन्दकी विरहव्यथासे पीडित देख कोई सखी अपने प्रफुल्ल कमलसदृश नयनोंसे नीर बहाती हुई 'हे
गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माघव !" कहकर रुदन करने लगी ।