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गोविन्द - दामोदर-स्तोत्र
 
( २५ )
 
केवल वायु, जल और पत्तोंके खाने से जिनके शरीर पवित्र हो गये
हैं, ऐसे प्रबालके समान शोभायमान लम्बी-लम्बी एवं कुछ अरुण रंगकी
जटाओंवाले मुनिगण पवित्र वृक्षों की छायामें विराजमान होकर निरन्तर
'गोविन्द ! दामोदर ! माघव !' इन नामोंका पाठ करते हैं ।
 
( २६ )
 
श्रीवनमालीके विरहमें विह्वल हुई ब्रजाङ्गनाएँ उनके विषय में
विविध प्रकारकी बातें कहती हुई लोक-लजाको तिलाञ्जलि दे बड़े
आर्त्तस्वरसे 'गोविन्द ! दामोदर ! माधव !' कहकर जोर-जोरसे
रोने लगीं ।
 
( २७ )
 
गोपी श्रीराधिकाजी किसी दिन मणियोंके पिंजड़े में पले
तोतेसे बार-बार 'आनन्दकन्द ! व्रजचन्द्र ! कृष्ण ! गोविन्द !
दामोदर ! माघव !' इन नामोंको बुलवाने लगीं।
 
( २८ )
 
कमलनयन श्रीकृष्णचन्द्रको किसी गोपबालककी चोटी बछड़ेकी
पूँछके बालोंसे बाँधते देख मैया प्यारसे उनकी ठोढ़ीको पकड़कर कहने
लग – 'मेरा गोविन्द ! मेरा दामोदर ! मेरा माधव !'
( २९ )
 
प्रातःकाल हुआ, ग्वाल-बालोंकी मित्रमण्डली हाथोंमें वेतकी
छड़ी और लाठी ले गौओंको चराने के लिये निकली । तब वे अपने
प्यारे सखा अनन्त आदिपुरुष श्रीकृष्णको 'गोविन्द ! दामोदर !
माघव !' कह कहकर बुलाने लगे ।
 
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