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से गुजरने के बावजूद भी उन्होंने समय निकाल कर भूमिका लिखी, यह उनका
श्रुत सेवा के प्रति बनी हुई श्रद्धा का ही परिणाम है । श्रुत की उपासना उनका
जीवनमंत्र है । इसी मंत्र ने उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय क्षितिज पर लाकर खड़ा किया
है । मैं उनकी प्रेरणा का बहुत मूल्यांकन करता हूं ।
 
मुनि प्रमोदकुमारजी मेरे सहयोगी हैं। वे अपने कर्तव्य-पालन के प्रति
जागरूक हैं । उन्होंने मुझे अन्यान्य कार्यों से मुक्त रखकर, निरंतर इसी कार्य
में संलग्न रहने का अवकाश दिया। उनका सहयोग भी स्मरणीय है ।
 
इसी प्रकार मुनि सुदर्शनजी, मुनि श्रीचन्दजी 'कमल', मुनि राजेन्द्र
कुमारजी, मुनि प्रशान्तकुमारजी आदि का सहयोग भी स्मृति पटल पर अंकित
है। उन सवको प्रणाम ।
 
अन्त में पंचांग प्रणति उन सबको जिनका प्रत्यक्ष या परोक्ष सहयोग
मुझे मिला है / मिल रहा है ।
 
वि० सं० २०४५, नूतन वर्ष का पहला दिन
चैत्र शुक्ला १ / २, ता० १९-३-८८
 
जैन विश्व भारती, लाडनूं ( राजस्थान )
 
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- मुनि दुलहराज
 
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