देशीशब्दकोश /44
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४३
दोनों रूपों में ही शब्दों का प्रचलन रहा हो । इसमें बहुश्रुत या सर्वज्ञ ही प्रमाण
लिपि भ्रम के कारण कहीं-कहीं अर्थ का आमूलचूल परिवर्तन भी
परिलक्षित होता है । 'पडीर' शब्द का अर्थ है - चोरणिवह अर्थात् चोरों का
समूह । लिपिभ्रम के कारण किसी ने 'चोरणिवह' के स्थान पर 'बोरणिवह '
पढ़ लिया और इस संदर्भ में 'पडीर' का अर्थ बेरों ( बदरी फल ) का समूह हो
गया २
देशीनाममाला की वृत्ति में आचार्य हेमचंद्र ने अन्य आचार्यों के
• अर्थभेद, शब्दभेद तथा उनके मतों का भी उल्लेख किया है । जैसे—
केचित् प्रिये कायरो इत्याहुः ।
अलमलवसहो सप्ताक्षरं नामेति गोपालः ।
ऊसाइअं उत्क्षिप्तमिति धनपालः ।
जंबुलं मद्यभाजनमिति सातवाहनः ।
टोलं पिशाचमाहुः सर्वे शलभं तु राहुलकः ।
खेआलु निःसह, असहन इत्यन्ये ।
पेढालं वर्तुलमिति द्रोणः ।
पेंडारो महिषीपाल इति देवराजः ।
हमने इन सबका समावेश कोश के मूलभाग में किया है ।
कहीं-कहीं आचार्य हेमचंद्र ने पूर्वज देशी कोशकारों द्वारा मान्य
या प्रयुक्त देशी शब्द-संघटना के विषय में ऊहापोह किया है। जैसे-
अच्छिघरुल्ल, अच्छिहरिल्ल तथा अच्छिहरुल्ल – इन तीन शब्द प्रयोगों में
उन्होंने केवल 'अच्छिहरुल्ल' को अपने ग्रंथ में स्थान दिया है। शेष दो के लिए
'बहुज्ञा: प्रमाणम्' कहकर छोड़ दिया है । हमने ऐसे सभी शब्दों का संकलन
किया है ।
देशी शब्द विभिन्न ग्रंथों में भिन्न-भिन्न रूप से प्रयुक्त हुए हैं ।
व्याख्याकारों ने किसी एक रूप को मुख्य मानकर दूसरे रूपों को पाठभेद में
उल्लिखित किया है । यत्र-तत्र हमने उन पाठभेदों में प्रयुक्त कुछेक देशी रूपों
को टि और पा के उल्लेख के साथ इस कोश में समाविष्ट किया है । जैसे—
उस्सलग-उच्छूलग । कुंडिल्लग - कुंटुल्लिग । फुग्गफुग्ग-फुग्गपुग्ग ।
भंभब्भूय - भंभाभूय । भुंभर-भुंभल-सुंभल ।
कहीं-कहीं मूलशब्द तो हमें जैसा मिला वैसा ही रखा है, किन्तु कोष्ठक
१. देशीनाममाला, ११३७ वृत्ति :
केषांचिद् भ्रमोऽभ्रमो वेति बहुदृश्वान एव प्रमाणम् ।
२. वही, ६१८ वृत्ति ।
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दोनों रूपों में ही शब्दों का प्रचलन रहा हो । इसमें बहुश्रुत या सर्वज्ञ ही प्रमाण
लिपि भ्रम के कारण कहीं-कहीं अर्थ का आमूलचूल परिवर्तन भी
परिलक्षित होता है । 'पडीर' शब्द का अर्थ है - चोरणिवह अर्थात् चोरों का
समूह । लिपिभ्रम के कारण किसी ने 'चोरणिवह' के स्थान पर 'बोरणिवह '
पढ़ लिया और इस संदर्भ में 'पडीर' का अर्थ बेरों ( बदरी फल ) का समूह हो
गया २
देशीनाममाला की वृत्ति में आचार्य हेमचंद्र ने अन्य आचार्यों के
• अर्थभेद, शब्दभेद तथा उनके मतों का भी उल्लेख किया है । जैसे—
केचित् प्रिये कायरो इत्याहुः ।
अलमलवसहो सप्ताक्षरं नामेति गोपालः ।
ऊसाइअं उत्क्षिप्तमिति धनपालः ।
जंबुलं मद्यभाजनमिति सातवाहनः ।
टोलं पिशाचमाहुः सर्वे शलभं तु राहुलकः ।
खेआलु निःसह, असहन इत्यन्ये ।
पेढालं वर्तुलमिति द्रोणः ।
पेंडारो महिषीपाल इति देवराजः ।
हमने इन सबका समावेश कोश के मूलभाग में किया है ।
कहीं-कहीं आचार्य हेमचंद्र ने पूर्वज देशी कोशकारों द्वारा मान्य
या प्रयुक्त देशी शब्द-संघटना के विषय में ऊहापोह किया है। जैसे-
अच्छिघरुल्ल, अच्छिहरिल्ल तथा अच्छिहरुल्ल – इन तीन शब्द प्रयोगों में
उन्होंने केवल 'अच्छिहरुल्ल' को अपने ग्रंथ में स्थान दिया है। शेष दो के लिए
'बहुज्ञा: प्रमाणम्' कहकर छोड़ दिया है । हमने ऐसे सभी शब्दों का संकलन
किया है ।
देशी शब्द विभिन्न ग्रंथों में भिन्न-भिन्न रूप से प्रयुक्त हुए हैं ।
व्याख्याकारों ने किसी एक रूप को मुख्य मानकर दूसरे रूपों को पाठभेद में
उल्लिखित किया है । यत्र-तत्र हमने उन पाठभेदों में प्रयुक्त कुछेक देशी रूपों
को टि और पा के उल्लेख के साथ इस कोश में समाविष्ट किया है । जैसे—
उस्सलग-उच्छूलग । कुंडिल्लग - कुंटुल्लिग । फुग्गफुग्ग-फुग्गपुग्ग ।
भंभब्भूय - भंभाभूय । भुंभर-भुंभल-सुंभल ।
कहीं-कहीं मूलशब्द तो हमें जैसा मिला वैसा ही रखा है, किन्तु कोष्ठक
१. देशीनाममाला, ११३७ वृत्ति :
केषांचिद् भ्रमोऽभ्रमो वेति बहुदृश्वान एव प्रमाणम् ।
२. वही, ६१८ वृत्ति ।
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