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उवकoयं कप्रत्ययाभावे उवयं सज्जितम् (१।११९ वृत्ति) ।
जच्छंदओ स्वच्छन्दः कप्रत्ययाभावे जच्छंदो (३।४३ वृत्ति) ।
 
इसी प्रकार कहीं-कहीं दीर्घ- ह्रस्व मात्रा के अंतर वाले, अ / आ /इ / उ / ग/
घ/ह के अंतर वाले तथा व्यञ्जन - द्वित्त्व वाले शब्द समानार्थक होने पर भी
पृथक् रूप से ग्रहण किए गए हैं। जैसे—
 
चुडलय, चुडलि, चुडलिय, चुडली, चुडल्लि, चुडिलीय – जलती हुई
 
लकड़ी
 

 
गुम्मी, गुम्ही, गोमी, गोम्मी, गोम्ही— कनखजूरा ।
उयरिणिया, ऊरणिया, ऊरणीया- जंतु- विशेष ।
भिलुगा, भिलुघा, भिलुहा - भूमि की रेखा ।
 
२. इन्हें भिन्न ग्रहण करने का दूसरा कारण - कभी-कभी शब्द में अ /
आ/क/य/ग आदि जुड़ने से अर्थ में बहुत भिन्नता आ जाती है। जैसे-
० अवल्ल - बैल । अवल्लय- -नौका खेने का एक उपकरण ।
 
• उद्धच्छवि विपरीत । उद्धच्छविअ - सज्जित ।
 

 
० उंड – १. मुख, २. ऊंडा । उंडअ - पांव में पिंड रूप में लगे उतना गहरा
स्थण्डिल ।
 
कीचड़ । उंडग
 

 
• पयल- नीड । पयला - निद्रा । पयलाअ सर्प । पयल्ल
 
प्रसृत ।
 

 
पडिसारिअ - स्मृत । पडिसारी - यवनिका ।
 
इस कोश के मूलभाग में आदि नकार वाले शब्दों को नहीं रखा गया
है । आगमों में जहां कहीं आदि नकार वाले शब्द प्राप्त हुए, उनके स्थान में
'ण' कर दिया गया है। क्योंकि देशी शब्दों की आदि में नकार का सर्वथा
अभाव है । हेमचंद्राचार्य के मतानुसार 'देश्य प्राकृत में आदि नकार असंभव ही
है । प्राकृत व्याकरण में 'वा आदौ' सूत्र के द्वारा जो वैकल्पिक आदि ण का
विधान किया गया है, वह तो मात्र संस्कृत शब्दों से निष्पन्न प्राकृत शब्दों की
अपेक्षा से है ।"
 
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सामान्यतः संस्कृत या प्राकृत में उपसर्ग जुड़ने पर अर्थ परिवर्तित हो
जाता है । हेमचंद्राचार्य के अभिमत में देशी शब्दों का उपसर्ग के साथ कोई
स्वतंत्र सम्बंध नहीं है । जैसे—उच्छिल्ल – छिद्र ( दे १ / ९५ ) । छिल्ल – छिद्र
( दे ३/३५) । यहां उत्पूर्वक छिल्ल शब्द नहीं है, लेकिन छिल्ल और
 
१. देशीनाममाला, ५॥६३ वृत्ति :
 
नकार आदयस्तु देश्याम् असम्भविन एवेति न निबद्धाः । यच्च 'वा आदौ '
( प्रा ११२२६) इति सूत्रितम् अस्माभिः तत् संस्कृतभवप्राकृतशब्दापेक्षया
न देशी अपेक्षया इति सर्वमवदातम् ।
 
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