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धात्वादेश प्रकरण में इन धातुओं का आख्यान यदि पहले नहीं किया होता तो
वे अवश्य इन्हें देशीनाममाला में देशीरूप में स्वतंत्र स्थान देते । और यह
वास्तविकता भी है कि टिविडिक्क, टिरिटिल्ल आदि सैंकड़ों शब्द ऐसे हैं
जिनकी समानता / तुल्यता का वहन करने वाले शब्द संस्कृत में उपलब्ध नहीं
हैं । आगम- व्याख्या ग्रंथों में आचार्य हरिभद्र आचार्य मलयगिरि आदि
व्याख्याकारों ने कई स्थानों पर आदेश प्राप्त धातुओं के देशी होने का
निर्देश भी किया है । जैसे- साहइ त्ति देशीवचनतः कथयति ( आवहाटी १
पृ १६०) । 'साह' धातु 'कथ' धातु के आदेशरूप में प्राप्त है ।'
कुछ अन्य उदाहरण इस प्रकार हैं-
जोअ ( दृश् ) जोएइत्ति देशीवचनमेतद् निरूपयति ।
झोस ( गवेषय् ) झोसेह त्ति देशीवचनत्वाद् गवेषयत ।
दुरुह ( आ + रुह ) आरोहणे देशी ।
 
फव्वीह (लभ्) फव्वीहामो त्ति देशीपदत्वाद् लभामहे ।
इसी आधार पर हमने सभी आदेश प्राप्त धातुओं को देशी धातु
के अन्तर्गत रखा है । यद्यपि अनेक आदेश ऐसे हैं जिनका संस्कृत रूप संभव
है, वे देशी जैसे प्रतीत भी नहीं होते, जैसे- भञ्ज को 'सूड' आदेश होता है ।
सूदन विनाश के अर्थ में संस्कृत में भी प्रसिद्ध है, किन्तु आदेशप्राप्त होने से
इसे देशी के अन्तर्गत रखा है। इसी प्रकार 'दुमण' शब्द दून् धातु का आदेश-
प्त रूप है ।
 
देशी धातुओं के पृथक् संग्रहण के संदर्भ में आचार्य हेमचन्द्र का
अभिमत विशेष ज्ञातव्य है । उनका मन्तव्य है कि देशी शब्दसंग्रह में धात्वादेश-
प्रकरण का संग्रह उचित नहीं है, क्योंकि देशीसंग्रह में उन्हीं शब्दों का ग्रहण
उचित है जिनका अर्थ सिद्ध या प्रसिद्ध है, जो साध्यमान नहीं है । धात्वादेशों
का अर्थ साध्य है, सिद्ध नहीं । दूसरी बात, त्यादि, तुम्, तव्य आदि प्र
की बहुलता के कारण धातुओं के अनेक रूप बनते हैं जिनका संग्रहण सम्भव
नहीं है ।
 
देशीनाममाला में अनेक धातुमूल शब्दों का प्रयोग हुआ है । यथा-
आरोग्गिय, आहुडिय, आडुआलिय, आसरिअ । 'करवाना' अर्थ का सूचक
'णिच् ' प्रत्यय लगाने से ये नामधातु बन सकती हैं । यथा— आरोग्गं करोति
आरोग्गइ । आहुडं करोति आहुडइ । आडुआलिं करोति आडुआलइ इत्यादि ।
 
१. प्राकृत व्याकरण, ४२ ।
 
२. देशीनाममाला, १।३७ वृत्तिः 'न च धात्वादेशानां देशीषु संग्रहो युक्तः ।
सिद्धार्थशब्दानुवादपरा हि देशी साध्यार्थपराश्च धात्वादेशाः । ते च
त्यावि-तुम्-तव्याविप्रत्ययैर्बहुरूपाः संग्रहीतुमशक्या इति ।
 
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