देशीशब्दकोश /35
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३४.
शब्दों के साथ न देकर इनका पृथक् [ संग्रहण किया है ।
भागों में विभक्त किया जा सकता है-
१. देशी धातुएं ।
२. आदेश प्राप्त धातुएं ।
प्रथम कोटि की धातुओं में कहीं-कहीं व्याख्याकारों ने यह देशी व
है, यह देशी पद है - ऐसा स्पष्ट निर्देश किया है । जैसे---
इन धातुओं को दो
खलाहि देशीपदमपस रेत्यस्यार्थी ।
जूहंति त्ति देशोशब्दत्वाद् आनयन्ति ।
णिण्णाइंति देशीपदत्वादधोगच्छति ।
फुराविति त्ति देशीपदमेतद् अपहारयन्ति ।
रूसेह त्ति देशीवच नत्वाद् गवेषयत ।
वाडुइत्ति देशीवचनमेतत् नश्यतीत्यर्थः ।
विष्फालेइ देशीवचनमेतत् पृच्छतीत्यर्थः ।
आदेश प्राप्त धातुओं को कुछ विद्वानों ने तद्भव के रूप में स्वीकार
किया है । हेमचन्द्राचार्य ने पूर्वाचार्यों की देशी अवधारणा को उल्लिखित कर
इन्हें धात्वादेश प्रकरण में समाविष्ट किया है । वे लिखते हैं - एते चान्यैर्देशीषु
पठिता अपि अस्माभिर्धात्वादेशीकृताः' – हमारे पूर्ववर्ती देशीकारों ने इन
धातुओं को देशीधातुओं के रूप में संगृहीत किया है, पर हमने इन्हें आदेश
प्राप्त धातुओं के रूप में ग्रहण किया है ।
किंतु आचार्य हेमचन्द्र देशीनाममाला में स्थान-स्थान पर संकेत करते
हैं कि अमुक धातु हमने धात्वादेश में बता दी है, इसलिए यहां उसका कथन
नहीं किया है । जैसे--
अइच्छइ, अक्कुसइ–गच्छति । अवबखइ- पश्यति । अप्पाहइ- संदिशति ।
अल्लस्थइ - उत्क्षिपति । एते धात्वादेशेषु शब्दानुशासने अस्माभिरुक्ता इति
नेहोपात्ताः ।
(१।३७ वृ)
उप्फालइ - कथयति उमाइ पूर्यते इत्यादयो धात्वादेशेष्वस्माभिरुक्ता इति
नोच्यन्ते ।
(१।११७ वृ)
( ३११८ वृ )
(३।१६ वृ)
जूरइ खिद्यते क्रुध्यति च इति धात्वादेशेषूक्तमिति नोक्तम् । ( ३१५२ व )
टिविडिक्कइ मण्डयति, टिरिटिल्लइ भ्राम्यति धात्वादेशेषूक्ताविति नोक्तौ ।
(४१३ व )
इन निर्देशों से यह सम्भावना की जा सकती है कि हेमशब्दानुशासन के
१. प्राकृत व्याकरण ४।२ टीका ।
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चुलुचुलइ -- स्पन्दते इति धात्वादेशेषूक्तमिति नोक्तम् ।
चोप्पडइ – प्रक्षति इति धात्वादेशेषूक्तमिति ।
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शब्दों के साथ न देकर इनका पृथक् [ संग्रहण किया है ।
भागों में विभक्त किया जा सकता है-
१. देशी धातुएं ।
२. आदेश प्राप्त धातुएं ।
प्रथम कोटि की धातुओं में कहीं-कहीं व्याख्याकारों ने यह देशी व
है, यह देशी पद है - ऐसा स्पष्ट निर्देश किया है । जैसे---
इन धातुओं को दो
खलाहि देशीपदमपस रेत्यस्यार्थी ।
जूहंति त्ति देशोशब्दत्वाद् आनयन्ति ।
णिण्णाइंति देशीपदत्वादधोगच्छति ।
फुराविति त्ति देशीपदमेतद् अपहारयन्ति ।
रूसेह त्ति देशीवच नत्वाद् गवेषयत ।
वाडुइत्ति देशीवचनमेतत् नश्यतीत्यर्थः ।
विष्फालेइ देशीवचनमेतत् पृच्छतीत्यर्थः ।
आदेश प्राप्त धातुओं को कुछ विद्वानों ने तद्भव के रूप में स्वीकार
किया है । हेमचन्द्राचार्य ने पूर्वाचार्यों की देशी अवधारणा को उल्लिखित कर
इन्हें धात्वादेश प्रकरण में समाविष्ट किया है । वे लिखते हैं - एते चान्यैर्देशीषु
पठिता अपि अस्माभिर्धात्वादेशीकृताः' – हमारे पूर्ववर्ती देशीकारों ने इन
धातुओं को देशीधातुओं के रूप में संगृहीत किया है, पर हमने इन्हें आदेश
प्राप्त धातुओं के रूप में ग्रहण किया है ।
किंतु आचार्य हेमचन्द्र देशीनाममाला में स्थान-स्थान पर संकेत करते
हैं कि अमुक धातु हमने धात्वादेश में बता दी है, इसलिए यहां उसका कथन
नहीं किया है । जैसे--
अइच्छइ, अक्कुसइ–गच्छति । अवबखइ- पश्यति । अप्पाहइ- संदिशति ।
अल्लस्थइ - उत्क्षिपति । एते धात्वादेशेषु शब्दानुशासने अस्माभिरुक्ता इति
नेहोपात्ताः ।
(१।३७ वृ)
उप्फालइ - कथयति उमाइ पूर्यते इत्यादयो धात्वादेशेष्वस्माभिरुक्ता इति
नोच्यन्ते ।
(१।११७ वृ)
( ३११८ वृ )
(३।१६ वृ)
जूरइ खिद्यते क्रुध्यति च इति धात्वादेशेषूक्तमिति नोक्तम् । ( ३१५२ व )
टिविडिक्कइ मण्डयति, टिरिटिल्लइ भ्राम्यति धात्वादेशेषूक्ताविति नोक्तौ ।
(४१३ व )
इन निर्देशों से यह सम्भावना की जा सकती है कि हेमशब्दानुशासन के
१. प्राकृत व्याकरण ४।२ टीका ।
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चुलुचुलइ -- स्पन्दते इति धात्वादेशेषूक्तमिति नोक्तम् ।
चोप्पडइ – प्रक्षति इति धात्वादेशेषूक्तमिति ।
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