देशीशब्दकोश /24
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विभिन्न प्रांतीय सीमाओं के साथ देशी भाषाओं के उच्चारण के बारे
में विशेष जानकारी देते हुए भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र में लिखा है-
गंगा और सागर के मध्यवर्ती क्षेत्रों के निवासी एकारबहुल भाषा का
प्रयोग करते हैं । जैसे- भंते, समणे, महावीरे आदि । ( गंगा और सागर के
मध्य मगध क्षेत्र होने से यह एकारबहुल मागधी भाषा होनी चाहिए ) ।
विन्ध्य और सागर के मध्य जो देश हैं वहां ण के स्थान पर नकार-
बहुल भाषा का प्रयोग होता है । जैसे-- नकरं, मइकनो आदि । ( यह पैशाची
प्राकृत होनी चाहिए ) ।
सौराष्ट्र, अवन्ती और वेत्रवती नदी के उत्तरी भाग में चकारबहुल
भाषा का प्रयोग होता है । (यह प्राच्या या पैशाची प्रभावित प्राकृत भाषा
होनी चाहिए ) ।
हिमवान्, सिन्धु और सौवीर में रहने वाले लोग उकारबहुल भाषा
बोलते हैं । जैसे- अप्पणु, वक्कलु, फलु आदि ( अपभ्रंश प्राकृत उकारबहुल है ) ।
चर्मण्वती नदी के तट पर तथा अर्बुद पर्वतवर्ती क्षेत्रों में ओकार प्रधान
भाषा का प्रयोग होता है । जैसे- सुज्जो, सीसो आदि । ( यह शौरसेनी प्राकृत
होनी चाहिए ) ।
संस्कृत साहित्य-भाषा होने से उसमें देशी शब्दों का समावेश कम हुआ
किन्तु प्राकृत जनभाषा होने के कारण उसमें देशी शब्दों का समावेश अधिक
हुआ । निशीथ में भी यह उल्लेख मिलता है कि अर्धमागधी प्राकृत भाषा
अठारह देशी भाषाओं से युक्त है ।
कुवलयमाला के रचनाकार लिखते हैं कि देशी भाषा को जानने वाला
व्यक्ति ही इस ग्रन्थ को पढ़े ।
४
इसी प्रकार तरंगवई कहा, लीलावई कहा, पउमचरिउ
५
१. नाटयशास्त्र, १७/५६-६३ ।
२. निशीथभाष्य, ३६१८, चूर्णि पृष्ठ २५३ :
'अट्ठारसदेसीभासाणियतं अद्धमागहं' ।
३. कुवलयमाला, पृष्ठ २८१ :
जो जाणइ देसीओ भासाओ लक्खणाई धाऊ य ।
वय-जय-गाहा छेयं, कुवलयमालं पि सो पढउ ॥
४. जेकोबी, सनत्कुमार की भूमिका, पृष्ठ १७८ :
पालित्तएण रइया वित्थरओ तस्स देसीवयहि ।
५. लीलावई कहा, गाहा ४१ :
एमेव युद्ध जुयई मनोहरं पाययाए भासाए ।
परिवलदेसी सुलक्खं कहसु कहं दिव्व माणुसियं ॥
६. पउमचरिउ, १।२०३, ४ :
सक्कयपाययपुलिणालंकिय देसी भासा उभय तडुज्जला ।
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विभिन्न प्रांतीय सीमाओं के साथ देशी भाषाओं के उच्चारण के बारे
में विशेष जानकारी देते हुए भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र में लिखा है-
गंगा और सागर के मध्यवर्ती क्षेत्रों के निवासी एकारबहुल भाषा का
प्रयोग करते हैं । जैसे- भंते, समणे, महावीरे आदि । ( गंगा और सागर के
मध्य मगध क्षेत्र होने से यह एकारबहुल मागधी भाषा होनी चाहिए ) ।
विन्ध्य और सागर के मध्य जो देश हैं वहां ण के स्थान पर नकार-
बहुल भाषा का प्रयोग होता है । जैसे-- नकरं, मइकनो आदि । ( यह पैशाची
प्राकृत होनी चाहिए ) ।
सौराष्ट्र, अवन्ती और वेत्रवती नदी के उत्तरी भाग में चकारबहुल
भाषा का प्रयोग होता है । (यह प्राच्या या पैशाची प्रभावित प्राकृत भाषा
होनी चाहिए ) ।
हिमवान्, सिन्धु और सौवीर में रहने वाले लोग उकारबहुल भाषा
बोलते हैं । जैसे- अप्पणु, वक्कलु, फलु आदि ( अपभ्रंश प्राकृत उकारबहुल है ) ।
चर्मण्वती नदी के तट पर तथा अर्बुद पर्वतवर्ती क्षेत्रों में ओकार प्रधान
भाषा का प्रयोग होता है । जैसे- सुज्जो, सीसो आदि । ( यह शौरसेनी प्राकृत
होनी चाहिए ) ।
संस्कृत साहित्य-भाषा होने से उसमें देशी शब्दों का समावेश कम हुआ
किन्तु प्राकृत जनभाषा होने के कारण उसमें देशी शब्दों का समावेश अधिक
हुआ । निशीथ में भी यह उल्लेख मिलता है कि अर्धमागधी प्राकृत भाषा
अठारह देशी भाषाओं से युक्त है ।
कुवलयमाला के रचनाकार लिखते हैं कि देशी भाषा को जानने वाला
व्यक्ति ही इस ग्रन्थ को पढ़े ।
४
इसी प्रकार तरंगवई कहा, लीलावई कहा, पउमचरिउ
५
१. नाटयशास्त्र, १७/५६-६३ ।
२. निशीथभाष्य, ३६१८, चूर्णि पृष्ठ २५३ :
'अट्ठारसदेसीभासाणियतं अद्धमागहं' ।
३. कुवलयमाला, पृष्ठ २८१ :
जो जाणइ देसीओ भासाओ लक्खणाई धाऊ य ।
वय-जय-गाहा छेयं, कुवलयमालं पि सो पढउ ॥
४. जेकोबी, सनत्कुमार की भूमिका, पृष्ठ १७८ :
पालित्तएण रइया वित्थरओ तस्स देसीवयहि ।
५. लीलावई कहा, गाहा ४१ :
एमेव युद्ध जुयई मनोहरं पाययाए भासाए ।
परिवलदेसी सुलक्खं कहसु कहं दिव्व माणुसियं ॥
६. पउमचरिउ, १।२०३, ४ :
सक्कयपाययपुलिणालंकिय देसी भासा उभय तडुज्जला ।
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