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ओदन शब्द के लिए निम्न पंक्तियां पठनीय हैं-
'पुव्वदेसयाणं पुग्गलि ओदणो भण्णइ, लाडमरहट्ठाणं कूरो, द्रविडाणं
चोरो, आंध्राणं कनायुं ।"
 
बृहत्कल्प भाव्य में आचार्यपद के योग्य शिष्य के लिए स्पष्ट निर्देश है
कि वह देशी भाषाओं के परिज्ञान के लिए बारह वर्ष तक देशाटन करे ।
देशाटन का प्रयोजन और उससे होने वाली निष्पत्तियों पर प्रकाश डालते हुए
कहा गया है कि शास्त्रों में प्रसिद्ध शब्द जिन-जिन देशों और प्रान्तों में व्यवहृत
होते हैं, देशभ्रमण के समय उन-उन देशों में उनका प्रत्यक्षीकरण हो जाता है -
पयः पिच्चं नीरमित्यादयश्च शास्त्र प्रसिद्धाः शब्दास्तेषु तेषु देशेषु लोकेन तथा
तथा व्यवह्रियमाणा देशदर्शनं कुर्वता प्रत्यक्षत उपलभ्यन्ते ।
 
दूसरी बड़ी उपलब्धि यह होती है कि सतत परिव्रजन करने वाला
परिव्राजक मगध, मालव, महाराष्ट्र, लाट, कर्णाट, द्रविड, गोड, विदर्भ आदि
नाना देशों की देशीभाषाओं में कुशलता प्राप्त कर लेता है । इसमें एक बड़ी
सुविधा यह हो जाती है कि वह नाना देशीभाषाओं में निबद्ध सूत्रों के उच्चारण
और उनके यथार्थ अर्थकथन में दक्ष बन जाता है और जब वह आचार्यपद
को अलंकृत करता है तो समस्त देशीभाषाओं में निष्णात होने से अभाषिकों
( केवल अपने ही प्रदेश की भाषा जानने वालों को भी उनकी अपनी भाषा
में प्रतिबोध देकर प्रव्रजित कर लेता है ।
 
देशीभाषाओं के भेद
 
आगमों में अनेक स्थलों पर अठारह प्रकार की देशीभाषाओं का
उल्लेख मिलता है। राजकुमारों को भी अठारह भाषाओं का ज्ञान कराया
जात था । गणिकाएं भी इन भाषाओं में निष्णात होती थीं । ये अठारह
 
१. दशवैकालिक, जिनदासचूर्ण, पृष्ठ २३६ ।
२. बृहत्कल्प भाष्य, १२२३, टोका पृष्ठ ३८० ।
३. बृहत्कल्पभाष्य, १२२६, १२३० :
 
नाणादेसीकुसलो, नाणादेसीकयस्स सुत्तस्स ।
अभिलावअत्थकुसलो, होइ तओ णेण गंतव्वं ॥
कहयति अभासियाण वि, अभासिए आवि पव्वयावेइ ।
सव्वे वि तत्थ पीई, बंधंति सभासिओ णे ति ॥
४. औपपातिक १४६; राजप्रश्नीय, ८०६
५. ज्ञाताधर्मकथा, ११११८८ :
 
एते णं से मेहे
६. वही, ११३८ :
 
देवदत्ता नामं गणिया .. "अट्ठारसदेसीभासाविसारया ।
 
कुमारे.अट्ठारसविहदेसिप्पगारभासाविसारए ।
 
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