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भूमिका
 
देशी शब्दों का प्रयोग वैदिक युग की भाषा से होता आ रहा है ।
ग्रामीण या जनभाषा का प्रभाव वैदिक भाषा पर परिलक्षित होता है ।
ब्राह्मणकाल की आर्यभाषा के तीन रूप देखे जा सकते हैं - उदीच्या, मध्य-
देशीया एवं प्राच्या । उदीच्या परिनिष्ठित भाषा थी । प्राच्या भाषा पूर्व में
रहने वाले बर्बर असुरवर्ग के लोगों की भाषा थी । मध्यदेशीया भाषा का
स्वरूप उदीच्या और प्राच्या के बीचोबीच था । प्राचीन आर्यभाषा के इन
तीनों रूपों के उदाहरण स्वरूप श्रीर, श्रील एवं श्लील - ये तीन शब्द लिए जा
सकते हैं । ये तीनों शब्द क्रमशः उदीच्या, मध्यदेशीया एवं प्राच्या आर्यभाषा
के माने जा सकते हैं ।
 
प्राकृत भाषाओं के अन्तर्गत पालि भाषा का भी एक विशिष्ट स्थान
है । यह अवश्य एक बोलचाल की भाषा थी । इसे पूर्णरूपेण अकृत्रिम
प्राकृत कहा जा सकता है, यद्यपि श्रीलंका एवं बर्मा जैसे देशों में इसमें कुछ
कृत्रिमता भी आ गई थी, जो बर्मा में अपने प्रकर्ष को पहुंच गई थी। इसी
प्रकार 'आयारों' जैसे जैन आगमों में हमें अकृत्रिम प्राकृतभाषा उपलब्ध होती
है, जबकि उत्तरवर्ती प्राकृतसाहित्य में कृत्रिमता भी दिखाई पड़ती है ।
 
संस्कृत में शब्दों के दो विभाग किए गए हैं – व्युत्पन्न एवं अव्युत्पन्न ।
व्याकरण के नियमों से सिद्ध होने वाले शब्द व्युत्पन्न कहलाते हैं। जिनकी
सिद्धि व्याकरण सम्मत न होकर लोक-परम्परा या व्यवहार से होती है, वे
अव्युत्पन्न शब्द कहलाते हैं ।
 
प्राकृत वैयाकरणों द्वारा प्राकृत शब्द तीन भागों में बांटे गए हैं-
तत्सम, तद्भव एवं देश्य या देशी । इनमें देश्य शब्द व्युत्पत्ति- सिद्ध नहीं
होते ।
 
देशी शब्दों के निर्धारण में आचार्य हेमचन्द्र ने कुछ कसौटियां प्रस्तुत
की हैं । त्रिविक्रम ने देशी शब्दों का छह विभागों में वर्गीकरण किया है ।
आधुनिक भाषा वैज्ञानिकों की दृष्टि में ये कसौटियां एवं वर्गीकरण सही नहीं
हैं। इन विद्वानों ने देशीशब्दों के निर्धारणार्थ कामी ऊहापोह किया है । इन
विचार विमर्शों में जार्ज ग्रीयर्सन का मंतव्य काफी महत्त्वपूर्ण प्रतीत होता
है। वे देशी शब्दों का संबंध आर्यों द्वारा वैदिक काल के पहले ही बोली जाने
वाली जनभाषा से बताते हैं । इसके अतिरिक्त वे देशी शब्दों का संबंध
 
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