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गताप्राया रात्रिः कृशतनुशशी
प्रदीपोऽयं निद्रावशमुपगतो घूर्णत इव ।
प्रणामान्तो मानस्तदपि न जहासि
.
बहुत रोका उन्होंने अपने आपको, परन्तु चौथे चरण की पूर्ति में यह पद्या
उनके मुख से स्पष्ट निकल ही पड़ी-
——
कुचप्रत्यासत्त्या हृदयमपि ते चण्डि कठिनम् ।
इसको सुन कर कवि
तो लज्जा से
शाप दे दिया जिसकी निवृत्ति के लिए उन्होंने सूर्य की आराधना की और सूर्य-
शतक की रचना की, जो मयूरशतक के नाम से भी प्रसिद्ध है
प्रभावित हो कर ही उक्त पद्य में से 'चण्डि' शब्द को लेकर बाण ने प्रतिस्पर्धा में
'चण्
मयूर कवि को शाप दिया और मयूर ने पलट कर उसको शाप दे डाला । बाद
में, दोनों ने अपने-अपने इष्ट देवता के प्रसादनार्थ उभय शतकों का प्रणयन किया
और दोनों ही शापमुक्त हो गए ।
ऐसा भी कहते हैं कि जब मयूर शापमुक्त हुए तो उनकी स्पर्धा में बाण
ने अपने अंगों को आहत कर लिया और फिर चण्डी के प्रसाद से पुन: स्वास्थ्य-
लाभ किया ।
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[^१
यह दीपक भी मानो नींद में भर कर चक्कर खा रहा है, प्रायः प्रणाम करते ही
मानिनियां मान जाती हैं पर तुम्हारा क्रोध है कि शांत ही नहीं हो रहा है।' इतने में मयूर
ने कहा 'हे चण्डि ? ( कोपने), ऐसा लगता है कि कठिन कुचों के पास रहने से तुम्हारा
हृदय भी कठोर हो गया है ।'
[^२
अपनी बहिन के शारीरिक सौन्दर्य का
अप्रसन्न होकर उसको शाप दिया था। इस
पाँच शार्दूलविक्रीडित छन्द में । इन पद्यों को जी. पी. क्
करके प्रकाशित किया है ।
G. P. Quakenbos; the Sanskrit
(Columbia University, Indo-Iranian Series
poems of Mayura, New York, 1917.