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४ ]
२
साम्ब
का श्रा
का आश्रय लेकर उसने अपने मन को इष्ट से कभी विश्लिष्ट नहीं होने दिया
है । वह चाण्डाल-कन्यका में भी किरातवेषा भवानी
कात्यायनी के स्वरूप का दर्शन करता है, विन्ध्याटवी में भी सर्वव्यापिनी महा-
माया के लीला-विग्रह का साक्षात्कार करता है[^३], उसकी कथा के पात्रों के
चण्डिका की सेवा के लिए निर्मित
है[^४], रुद्राक्षवलयग्रहणनिपुण महामुनि जा
और उनके भस्मपाण्डुरोमाश्लिष्ट शरीर में पशुपति विग्रह को वर्तमानता सत्य-
व्रती साम्बशिव-सेवी बाण की ही अनुभूति है। इन्हीं महामुनि की पशुपति से
अभिन्नता की दूसरी कल्पना भी बहुत ही सुन्दर है । 'अहो यह जरा भी कितनी
साहस वाली है कि जिसकी ओर प्रलयकाल के सूर्य का किरणजाल भी नहीं
देख सकता, ऐसे इनके चन्द्रकिरण के समान सफेद बालों के जटाभार पर वह
इस तरह उतर आई है जैसे शिवजी के मस्तक पर फेनपुञ्जधवला गङ्गा उतर
भा
आई हो । यही नहीं, प्राकृतिक दृश्यों में भी पद-पद पर उसे कण-कण में व्याप्त
त्र्यम्बकात्म स्वरूप की ही प्रतीति होती है; चन्द्राभरणालङ्कृत अम्बरतल से
अवतरित ज्योत्स्नाप्रवाह को देख कर उसका मन त्र्यम्बक के उत्तमाङ्ग से
प्रवाहित होकर धरणीतल और सागरों को
गङ्गा के ध्यान में मग्न हो जाता है। सफेद टीके वाला इन्द्रायुध अश्व भी
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[^१
चाण्डालक
[^२
वही, अनु० ८
[^३
स्थाणुसङ्गता मृगपतिसेविता च ।
[^४
कृन्निशितशस्त्रोल्लेख
त्रिपताकोग्रभृकुटिकराले ललाटफलके प्रबलभ
य
यन्या त्रिशूलेनेवाङ्कितं; अचल
त्रिशूलमिव महिषरुधिरार्द्र
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