2023-02-24 17:17:25 by ambuda-bot
This page has not been fully proofread.
[ ४३ ]
प्रज्ञात - साहित्य समुद्र में गोता लगाने में निपुण नाहटा बन्धुओं ने इस कृति
का पता लगा कर विद्वत्समुदाय को उपकृत किया है। इस प्रकाशन के लिए
उनको प्रेरणा ही गतिदायिनी हुई है इसलिए उनको धन्यवाद देना कर्तव्य
मानता हूँ ।
प्रतिष्ठान में कार्यकाल के समय मेरे सुहृद् और सहयोगी श्रीलक्ष्मीनारायण
जी गोस्वामो पाठ-मीलान और प्रूफसंशोधन श्रादि में वाञ्छित सहायता करते
रहे हैं और निवृत्त्युपरान्त मेरो कनिष्ठा पुत्री श्रीमती लीलाकुमारी पारीक ने
उस साहाय्य कार्य का निर्वाह किया है। मैं इन दोनों ही सहयोगियों को स्नेहा-
भिषिक्त साधुवादों से सत्कृत करता हूँ ।
श्रीब्रजमोहनजी जावलिया, उदयपुर शा. का. के इन-चार्ज़ ने भी मुझे
समय-समय पर श्रावश्यक सूचनाएं दी हैं तदर्थ वे धन्यवादा हैं ।
क्लिष्ट पाठ और अनेक प्रतिलिपिकर्ताओं द्वारा तैयार की गई होने के कारण
अस्पष्ट - सी प्रेसकॉपी से अक्षर-योजना करके मेरी इच्छानुसार अपेक्षा से भी
अधिक बार प्रूफ देने में कभी हिचक न करने वाले श्री हरिप्रसादजी पारीक
( साधना प्रेस के स्वामी ) भी मेरे द्वारा हजार बार धन्यवाद के अधिकारी हैं ।
इस प्रकाशन से संस्कृत साहित्य की एक अद्यावधि अप्रकाशित एवं बहु-
प्रतीक्षित कृति सामने आ रही है, इतना सन्तोष तो विद्वानों को होना ही चाहिये-
अन्यथा शतक का चण्डो को स्तुतिपरक प्रत्येक श्लोक १००० बार मुद्रित हुआ
है अतः प्रतिष्ठान की ओर से लक्षचण्डी (याग) तो हो हो गया है।.
अन्त में, मेरी योग्यता की स्वल्पता, प्रमाद नथवा अन्यान्य कारणों से इस
संस्करण में जो भी भूलें रह गई हों उनके लिए-
पुनश्च
जोधपुर
अक्षय नवमी,
सं० २०२४
}
प्रणम्य मान्यान् विनिवेदयामि
ग्रन्थं मुदा पश्यत सावधानाः
दृष्टे यदस्मिन् परम: प्रमोदो
भवेत्तथा सिद्धिरपि प्रकृष्टा ॥
EX
विदितसकलवेद्यर्न प्रशंसन्ति लोके
ग्रथितमपि महद्भिः किं पुनर्मादृशेन ।
इति विफलश्रमेऽस्मिन् वाग्व्ययेऽह प्रवृत्तः
स्वमतिविमलताये क्षन्तुमर्हन्ति सन्तः । इति ॥
विनयपरायण
गोपालनारायण
प्रज्ञात - साहित्य समुद्र में गोता लगाने में निपुण नाहटा बन्धुओं ने इस कृति
का पता लगा कर विद्वत्समुदाय को उपकृत किया है। इस प्रकाशन के लिए
उनको प्रेरणा ही गतिदायिनी हुई है इसलिए उनको धन्यवाद देना कर्तव्य
मानता हूँ ।
प्रतिष्ठान में कार्यकाल के समय मेरे सुहृद् और सहयोगी श्रीलक्ष्मीनारायण
जी गोस्वामो पाठ-मीलान और प्रूफसंशोधन श्रादि में वाञ्छित सहायता करते
रहे हैं और निवृत्त्युपरान्त मेरो कनिष्ठा पुत्री श्रीमती लीलाकुमारी पारीक ने
उस साहाय्य कार्य का निर्वाह किया है। मैं इन दोनों ही सहयोगियों को स्नेहा-
भिषिक्त साधुवादों से सत्कृत करता हूँ ।
श्रीब्रजमोहनजी जावलिया, उदयपुर शा. का. के इन-चार्ज़ ने भी मुझे
समय-समय पर श्रावश्यक सूचनाएं दी हैं तदर्थ वे धन्यवादा हैं ।
क्लिष्ट पाठ और अनेक प्रतिलिपिकर्ताओं द्वारा तैयार की गई होने के कारण
अस्पष्ट - सी प्रेसकॉपी से अक्षर-योजना करके मेरी इच्छानुसार अपेक्षा से भी
अधिक बार प्रूफ देने में कभी हिचक न करने वाले श्री हरिप्रसादजी पारीक
( साधना प्रेस के स्वामी ) भी मेरे द्वारा हजार बार धन्यवाद के अधिकारी हैं ।
इस प्रकाशन से संस्कृत साहित्य की एक अद्यावधि अप्रकाशित एवं बहु-
प्रतीक्षित कृति सामने आ रही है, इतना सन्तोष तो विद्वानों को होना ही चाहिये-
अन्यथा शतक का चण्डो को स्तुतिपरक प्रत्येक श्लोक १००० बार मुद्रित हुआ
है अतः प्रतिष्ठान की ओर से लक्षचण्डी (याग) तो हो हो गया है।.
अन्त में, मेरी योग्यता की स्वल्पता, प्रमाद नथवा अन्यान्य कारणों से इस
संस्करण में जो भी भूलें रह गई हों उनके लिए-
पुनश्च
जोधपुर
अक्षय नवमी,
सं० २०२४
}
प्रणम्य मान्यान् विनिवेदयामि
ग्रन्थं मुदा पश्यत सावधानाः
दृष्टे यदस्मिन् परम: प्रमोदो
भवेत्तथा सिद्धिरपि प्रकृष्टा ॥
EX
विदितसकलवेद्यर्न प्रशंसन्ति लोके
ग्रथितमपि महद्भिः किं पुनर्मादृशेन ।
इति विफलश्रमेऽस्मिन् वाग्व्ययेऽह प्रवृत्तः
स्वमतिविमलताये क्षन्तुमर्हन्ति सन्तः । इति ॥
विनयपरायण
गोपालनारायण