2023-03-13 20:13:44 by manu_css
This page has been fully proofread once and needs a second look.
व्यास, अत्रि और महेश कवि, हीराणंदसूरि तथा चामुण्ड कायस्थ और सूत्रधार
मण्डन तथा नथा जैसे प्रौढ विद्वान् और रचनाकार उनके विद्यामण्डल में
सम्मिलित थे । इन लोगों में से जिनकी स्वतन्त्र रचनाएं हैं उन्होंने स्पष्ट रूप से
अपना नामोल्लेख किया है; प्रशस्तिकारों ने भी अपने नाम का सूचन यथा-
स्थान किया ही है । अब ऐसा हो सकता है कि ग्रंथों का वस्तु-पाठ तो स्वयं
महाराणा ने रचा हो या उनके निर्देशन में नियोजित पण्डितों ने लिखा हो और
लिपिकारों ने विविध प्रशस्तियों में से चुने हुए श्लोकों से उनको अलंकृत किया
हो क्योंकि कतिपय ग्रंथों की प्रस्तावनाओं और पुष्पिकाओं में एकलिंगमाहात्म्य
तथा शिलोत्कीर्ण प्रशस्तियों की पद्यावली ज्यों की त्यों मिल जाती है ।
कुछ भी हो, महाराणा कुम्भकर्ण भारतीय इतिहास के उन कर्मयोगी नरपति-
वरेण्यों में गण्य हैं जो शस्त्र और शास्त्र के प्रयोग में समान दक्षता के धनी
रहे हैं । सम्राट् समुद्रगुप्त, श्रीहर्ष, शूद्रक, भर्तृहरि और भोज जैसे नरेन्द्र-साहित्य-
कारों की जाज्वल्यमान नक्षत्र-मालिका में उनकी दमक किसी से कम नहीं है ।
उनके साहित्य का अनुसन्धान, संरक्षण और प्रकाशन, भारतीय समाज, विशेषत:
राजस्थानप्रांतीय विपश्चिद्वर्यों का प्रथम पुनीत कर्त्तव्य है ।
आभार--
चण्डीशतक की प्रतियों का पाठ-मीलान करते समय जब-जब मैं इसके पद्यों
को पढ़ता था तो वृत्ति और व्याख्या में उद्घाटित अर्थ के साथ-साथ एक संदर्भ
मेरे स्मृतिपटल पर कभी-कभी प्रकाशित हो जाता था । सन् १९५६-५७ में
मेरे आदरणीय मित्र और पड़ौसी स्वर्गीय मोतीलालजी शास्त्री अपने दुर्गापुर
(जयपुर)-स्थित मानवाश्रम में वैदिकतत्त्वशोधसंस्थान के तत्त्वावधान में एक
ज्ञानसत्र चलाया करते थे । यह सत्र प्रायः मई, जून के मासों में होता था ।
वस्तुत: भारतीय पुराशास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान् स्व. डॉ. वासुदेवशरणजी अग्रवाल
ग्रीष्मावकाश में वाराणसी (हिन्दू विश्वविद्यालय) से उन दिनों शास्त्रीजी के
यहाँ आकर ठहरते थे और उनके उस प्रवासकाल का नाम ही ज्ञान-सत्र रखा
गया था । शहर के अन्यान्य विद्वान् तो प्रायः एकाध दिन ही आकर रह जाते थे
परन्तु, कुछ तो पास ही में रहने के कारण और कुछ शास्त्रीजी के स्नेहपूर्ण
आग्रह के कारण, मैं नियमित रूप से उस समय जा ही बैठता था जब वे और
शरण जी (हम लोग उनको इसी नाम से सम्बोधित करते थे) तीसरे पहर शास्त्र
या ज्ञानचर्चा किया करते थे। मैं शास्त्रीजी के प्रति पूर्ण आदरभाव बरतता था
परन्तु वे अपने सहज सौजन्यवश मुझ से वयस्यवत् ही व्यवहार करते थे। उन्होंने
मण्डन तथा नथा जैसे प्रौढ विद्वान् और रचनाकार उनके विद्यामण्डल में
सम्मिलित थे । इन लोगों में से जिनकी स्वतन्त्र रचनाएं हैं उन्होंने स्पष्ट रूप से
अपना नामोल्लेख किया है; प्रशस्तिकारों ने भी अपने नाम का सूचन यथा-
स्थान किया ही है । अब ऐसा हो सकता है कि ग्रंथों का वस्तु-पाठ तो स्वयं
महाराणा ने रचा हो या उनके निर्देशन में नियोजित पण्डितों ने लिखा हो और
लिपिकारों ने विविध प्रशस्तियों में से चुने हुए श्लोकों से उनको अलंकृत किया
हो क्योंकि कतिपय ग्रंथों की प्रस्तावनाओं और पुष्पिकाओं में एकलिंगमाहात्म्य
तथा शिलोत्कीर्ण प्रशस्तियों की पद्यावली ज्यों की त्यों मिल जाती है ।
कुछ भी हो, महाराणा कुम्भकर्ण भारतीय इतिहास के उन कर्मयोगी नरपति-
वरेण्यों में गण्य हैं जो शस्त्र और शास्त्र के प्रयोग में समान दक्षता के धनी
रहे हैं । सम्राट् समुद्रगुप्त, श्रीहर्ष, शूद्रक, भर्तृहरि और भोज जैसे नरेन्द्र-साहित्य-
कारों की जाज्वल्यमान नक्षत्र-मालिका में उनकी दमक किसी से कम नहीं है ।
उनके साहित्य का अनुसन्धान, संरक्षण और प्रकाशन, भारतीय समाज, विशेषत:
राजस्थानप्रांतीय विपश्चिद्वर्यों का प्रथम पुनीत कर्त्तव्य है ।
आभार--
चण्डीशतक की प्रतियों का पाठ-मीलान करते समय जब-जब मैं इसके पद्यों
को पढ़ता था तो वृत्ति और व्याख्या में उद्घाटित अर्थ के साथ-साथ एक संदर्भ
मेरे स्मृतिपटल पर कभी-कभी प्रकाशित हो जाता था । सन् १९५६-५७ में
मेरे आदरणीय मित्र और पड़ौसी स्वर्गीय मोतीलालजी शास्त्री अपने दुर्गापुर
(जयपुर)-स्थित मानवाश्रम में वैदिकतत्त्वशोधसंस्थान के तत्त्वावधान में एक
ज्ञानसत्र चलाया करते थे । यह सत्र प्रायः मई, जून के मासों में होता था ।
वस्तुत: भारतीय पुराशास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान् स्व. डॉ. वासुदेवशरणजी अग्रवाल
ग्रीष्मावकाश में वाराणसी (हिन्दू विश्वविद्यालय) से उन दिनों शास्त्रीजी के
यहाँ आकर ठहरते थे और उनके उस प्रवासकाल का नाम ही ज्ञान-सत्र रखा
गया था । शहर के अन्यान्य विद्वान् तो प्रायः एकाध दिन ही आकर रह जाते थे
परन्तु, कुछ तो पास ही में रहने के कारण और कुछ शास्त्रीजी के स्नेहपूर्ण
आग्रह के कारण, मैं नियमित रूप से उस समय जा ही बैठता था जब वे और
शरण जी (हम लोग उनको इसी नाम से सम्बोधित करते थे) तीसरे पहर शास्त्र
या ज्ञानचर्चा किया करते थे। मैं शास्त्रीजी के प्रति पूर्ण आदरभाव बरतता था
परन्तु वे अपने सहज सौजन्यवश मुझ से वयस्यवत् ही व्यवहार करते थे। उन्होंने