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मण्डन तथा नथा जैसे प्रौढ विद्वान्
सम्मिलित थे । इन लोगों में से जिनकी स्वतन्त्र रचनाएं हैं उन्होंने स्पष्ट रूप से
अपना नामोल्लेख किया है; प्रशस्तिकारों ने भी अपने नाम का सूचन यथा-
स्थान किया
महाराणा ने रचा हो या उनके निर्देशन में नियोजित पण्डितों ने लिखा हो और
लिपिकारों ने विविध प्रशस्तियों में से चुने हुए श्लोकों से उनको अलंकृत किया
हो क्योंकि कतिपय ग्रंथों की प्रस्तावनाओं और पुष्पिका
तथा शिलोत्कीर्ण प्रशस्तियों की पद्यावली ज्यों की त्यों मिल जाती है ।
कुछ भी हो, महाराणा कुम्भकर्ण भारतीय इतिहास के उन कर्मयोगी नरपति-
वरेण्यों में गण्य हैं जो शस्त्र और शास्त्र के प्रयोग में समान दक्षता के धनी
रहे हैं । सम्राट् समुद्रगुप्त, श्रीहर्ष, शूद्रक, भर्तृहरि और भोज जैसे नरेन्द्र
कारों की जाज्वल्यमान नक्षत्र
उनके साहित्य का अनुसन्धान, संरक्षण और प्रकाशन, भारतीय समाज, विशेषत:
राजस्थान
श्रा
आभार-
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चण्डीशतक की प्रतियों का पाठ-मीलान करते समय जब-जब
को पढ़ता था तो वृत्ति
मेरे स्मृतिपटल पर कभी-कभी प्रकाशित हो जाता था । सन् १९५६-५७ में
मेरे आदरणीय मित्र और प
(जयपुर)
ज्ञानसत्र चलाया करते थे । यह सत्र प्रा
वस्तुत: भारतीय पुराशास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान् स्व. डॉ. वासुदेवशरणजी अग्रवाल
ग्रीष्मावकाश में वाराणसी (हिन्दू विश्वविद्यालय) से उन दिनों शास्त्रीजी के
यहाँ आकर ठहरते थे और उनके उस प्रवासकाल का नाम ही ज्ञान-सत्र रखा
गया था । शहर के अन्यान्य विद्वान् तो प्रायः एकाध दिन ही आकर रह जाते थे
परन्तु, कुछ तो पास ही में रहने के कारण और कुछ शास्त्रीजी के स्नेहपूर्ण
श्रा
आग्रह के का
शरण जी (
या ज्ञानचर्चा किया करते थे। मैं शास्त्रीजी के प्रति पूर्ण
परन्तु वे अपने सहज सौजन्यवश मुझ से वयस्यवत् ही व्यवहार करते थे। उन्होंने